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________________ नागसारो । [ ६१ उत्पन्न होकर नष्ट हो गई हैं (भूत) [ते असभूताः पर्यायाः] वे अविद्यमान (भूत, भविष्य) पर्यायें [ज्ञानप्रत्यक्षाः भवन्ति] ज्ञान में प्रत्यक्ष होती हैं। टीका-जो (पर्यायें) अभी तक भी उत्पन्न नहीं हैं और जो उत्पन्न होकर नष्ट हो गई हैं, वास्तव में अविद्यमान होने पर भी, ज्ञान के प्रति नियत होने से (ज्ञान में निश्चित ज्ञात होने से) ज्ञान में प्रत्यक्ष वर्तने वाली, पाषाण स्तम्भ में उत्कीर्ण भूत और भावी देवों को (मूर्ति) मोति, अपने स्वरूप को अकम्पतया (ज्ञान को) अपित करने के स्वरूप वाली, वे (पर्याय) विद्यमान ही हैं । (भवन्ति क्रिया का कर्ता पर्याय हैं) ॥३८॥ तात्पर्यवत्ति अथातीतानागतपर्यायाणामसद्भुतसंज्ञा भवतीति प्रतिपादयति - जे व हि संजाया जे खस पट्ठा भवीय पन्जाया ये नैव संजाता नाद्यापि भवन्ति, भाविन इत्यर्थः। हि स्फुटं ये च खलु नष्टाः विनष्टा: पर्यायाः । कि कृत्वा ? भूत्वा ते होंति असम्भूया पज्जाया ते पूर्वोक्ता भता भाविनश्च पर्याया अविद्यमानत्वादसदभूता भण्यन्ते । णाणपश्चक्खा ते चाविद्यमानत्वादसभूता अपि वर्तमानज्ञानविषयत्वाद्व्यवहारेण भूतार्था भण्यन्ते, तथव ज्ञान प्रत्यक्षाश्वेति । यथार्य भगवान्निश्चयेन परमानन्द कलक्षणसुखस्वभावं मोक्षपर्यायमेव तन्मयत्वेन परिच्छिनत्ति, परद्रव्यपर्यायं तु व्यवहारेणेति । तथा भावितात्मना पुरुषेण रागादिविकल्पोपाधिरहितस्वसंवेदनपर्याय एव तात्पर्येण ज्ञातभ्यः, बहि व्यपर्यायाश्च गौणवृत्त्येति भावार्थः ॥३८॥ उत्थानिका-आगे आचार्य दिखलाते हैं कि पूर्व गाथा में जो असद्भूत शब्द कहा है वह संज्ञा भूत और भविष्यत् की पर्यायों को दी गई है ___अन्वय सहित विशेषार्थ-(जे पज्जाया) जो पर्याय (णेव हि संजाया) निश्चय से। अभी नहीं पैदा हुई हैं (जो खलु भवीय गठ्ठा) तथा जो निश्चय से होकर विनाश हो गई हैं (ते) वे भूत और भावी पर्याय (असम्भूया) असद्भुत या अविद्यमान (पज्जाया) पर्याय (होति) हैं, (णाण पच्चक्खा) परन्तु वे सर्व पर्याय यद्यपि इस समय में विद्यमान न होने से असद्भूत है तथापि वर्तमान केवलज्ञान का विषय होने से उपचार से भतार्थ अर्थात् सत्यार्थ या सद्भुत कही जाती हैं क्योंकि वे सब ज्ञान में प्रत्यक्ष हो रही हैं।। जैसे यह भगवान केवलज्ञानी निश्चयनय से परमानंद एक लक्षणमयी सुख-स्वभाव रूप मोक्ष अवस्था या पर्याय को ही तन्मय होकर जानते हैं परन्तु पर द्रव्य को व्यवहार नय से, तैसे ही आत्मा की भावना करने वाले पुरुष को उचित है कि वह रागादि विकल्पों को उपाधि से रहित स्वसंवेदन पर्याय को ही सर्व तरह से जाने और अनुभव करे तथा बाहरी द्रव्य और पर्यायों को गौण रूप से उदासीन रूप से जाने ॥३८॥
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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