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________________ पवयणसारो ] टीका- इस प्रकार शुद्धात्मानुरागयुक्त प्रशस्त सवति गया है । वह शुभोपयोग, शुद्धात्मा की प्रकाशक सर्वविरति को प्राप्त श्रमणों के कषायकण के सद्भाव के कारण प्रर्थार्तत होता हुआ, गौण होता है, क्योंकि उस शुभोपयोग का शुद्धात्मपरिणति से विरुद्ध राग के साथ संबन्ध है और यह शुभोपयोग गृहस्थों के तो, सविरति के न होने से शुद्धात्म-प्रकाशन के अभाव के कारण कषाय के सद्भाव में प्रवर्तमान होता हुआ भी, मुख्य है, क्योंकि जैसे ईंधन को स्फटिक के संपर्क से सूर्य के तेज का अनुभव होता है ( और इसलिये वह क्रमशः जल उठता है) उसी प्रकार -- र-गृहस्थ को राग के संयोग से शुद्धात्मा का अनुभव होता है, और ( इसलिये वह शुभोपयोग ) क्रमशः परम निर्वाणसौख्य का कारण होता है ॥२५४॥ तात्पर्यवृत्ति [ ६०१ अथायं वैयावृत्यादिलक्षणशुभोपयोगस्तपोधनैगणवृत्त्या श्रावकैस्तु मुख्यवृत्या कर्त्तव्य इत्याख्याति; - मणिदा भणिता कथिता । का कर्मतापन्ना ? बरिया चर्या चारित्रमनुष्ठानं । किं विशिष्टा ? एस एषा प्रत्यक्षीभूता । पुनश्च किंरूपा ? पसत्थभूदा प्रशस्तभृता धर्मानुरागरूपा । केषां सम्बन्धिनी ? समणाणं वा श्रमणानां वा पुणो घरत्याणं गृहस्थानां वा पुनरियमेव चर्या परेति परा सर्वोत्कृष्टेति लाएव परं लहदि सोक्खं तयैव शुभोपयोगचर्यया परम्परया मोक्षसुखं लभते गृहस्थ इति । तथाहितपोधनाः शेषतपोधनानां वैयावृत्यं कुर्बाणा सन्तः कायेन किमपि निरवद्यवैयावृत्यं कुर्वन्ति । वचनेन धर्मोपदेशं च । शेषभोषधानपानादिकं गृहस्थानामधीनं तेन कारणेन वैयावृत्यरूपो धर्मो गृहस्थानां मुख्यः तपोधनानां गौणः । द्वितीयं च कारणं निविकारचि चमत्कार भावनाप्रतिपक्षभूतेन विषयकषायनिमित्तोत्पन्नेनार्च रौद्रध्यानद्वयेन परिणतानां गृहस्थानामात्माश्रितनिश्चयधर्मस्यावकाशी नास्ति वैयावृत्यादिधर्मेण दुर्ध्यानवञ्चना भवति तपोधनसंसर्गेण निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गोपदेशलाभो भवति । ततश्च परम्परया निर्वाणं लभत इत्यभिप्रायः ।। २५४ || t एवं शुभोपयोगितपोधनानां शुभानुष्ठानकथन मुख्यतया गाथाष्टकेन द्वितीयस्थलं गतम् । इत ऊर्ध्व गाथाषट्कपर्यन्तं पात्र । पात्रपरीक्षामुख्यत्वेन व्याख्यानं करोति । उत्थानिका- आगे कहते हैं कि इस व्यावृत्य आदि रूप शुभोपयोग की क्रियाओं को तपोधनों को गौणरूप से करना चाहिये, परन्तु श्रावकों को मुख्य रूप से करना चाहिये अन्वय सहित विशेषार्थ - ( समणाणं ) साधुओं को ( एसा ) यह प्रत्यक्ष ( पसत्यभूवा धरिया) धर्मानुराग रूप चर्या या क्रिया होती है । (वा पुणो घरव्याणं ) तथा गृहस्थों की यह क्रिया ( परेति भणिदा) उत्कृष्ट कही गई है ( ता एव) इसी ही चर्या से गृहस्थ ( परं सोक्खं ) परंपरा से उत्कृष्ट मोक्षसुख ( लहवि ) प्राप्त करता है। तपोधन दूसरे साधुओं को
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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