SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 630
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६०२ । [ पवयणसारो वय्यावत्य करते हुए अपने शरीर के द्वारा जो कुछ भी ययावत्य करते हैं वह पापारम्भ व हिंसा से रहित होती है तथा वचनों के द्वारा धर्मोपदेश करते हैं। शेष औषधि, अन्नपान आदि को सेवा गृहस्थों के अधीन है, इसलिये वैयावृत्य गृहस्थों का मुख्य धर्म है, किन्तु साधुओं का गौण है। दूसरा कारण यह है कि विकार रहित चैतन्य के चमत्कार को भावना के विरोधी तथा इंद्रिय विषय और कषायों के निमित्त से पैदा होने वाले आतं और रौद्रध्यान में परिणमने वाले ग्रहस्थों को आत्माधीन निश्चयधर्म के पालने का अवकाश नहीं है। यदि वे गृहस्थ वैयावृत्यादि रूप शुभोपयोग धर्म से वर्तन करें तो खोटे ध्यान से बचते हैं तथा साधुओं की संगति से गृहस्थों को निश्चय तथा व्यवहार मोक्षमार्ग के उपवेश का लाभ हो जाता है, इससे ही वे गृहस्थ परंपरा निर्वाण को प्राप्त करते हैं, ऐसा गाथा का अभिप्राय है ॥२५॥ इस तरह शुभोपयोगी साधुओं की शुभोगयोग-सम्बन्धी क्रिया के कथन की मुख्यता से आठ गाथाओं के द्वारा दूसरा स्थल पूर्ण हुआ। इसके आगे आठ गाथाओं तक पात्र अपात्र की परीक्षा को मुख्यता से व्याख्यान करते हैंअथ शमोपयोगस्य कारणवपरीत्यात फलवपरीत्यं साधयति रागो पसत्थभूदो वत्थुविसेसेण फलदि विवरीदं । णाणाभूमिगवाणिह बोजाणिव सस्सकालम्हि ॥२५५॥ रागः प्रशस्तभूतो बस्तुविशेषेण फलति विपरीतम् ।। नानाभूमिगतानीह बीजानीव सस्यकाले ॥२५५।। यथकेषामपि बीजानां भूमिवपरीत्याग्निष्पत्तिवपरीत्यं तथैकस्यापि प्रशस्तरागलक्षणस्य शुभोपयोगस्य पात्रवपरीत्यात्फलबपरीत्यं कारणविशेषात्कार्यविशेषस्यावश्यंभावित्वात् ॥२५॥ भूमिका- अब, यह सिद्ध करते हैं कि शुभोपयोग को कारण को विपरीतता से फल की विपरीतता होती है अन्वयार्थ- [इह नानाभूमिगतानि बीजानि इव] जैसे इस जगत् में अनेक प्रकार की भूमियों में पड़े हुये बीज [सस्यकाले] धान्य काल में विपरीत रूप से फलित होते हैं, उसी प्रकार [प्रशस्तभूतः रागः] प्रशस्तभूत राग [वस्तु विशेषेण] वस्तु-भेद से (पात्र भेद से) [विपरीतं फलति ] विपरीत रूप फलता है।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy