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________________ [ १३३ वयसा ] जो टीका---जो केवल के प्रति ही नियत हो, वह केवलज्ञान प्रत्यक्ष है । भिन्न अस्तित्व वाली होने से परद्रव्यत्व को प्राप्त हुई हैं, और आत्मा के स्वभावपने को किचित् मात्र भी स्पर्श नहीं करतीं ऐसी इन्द्रियों के द्वारा उपलब्धि करके ( ऐसी इन्द्रियों के निमित्त से पदार्थों को जानकर ) उत्पन्न हुआ यह ( इन्द्रियज्ञान) आत्मा के प्रत्यक्ष होने योग्य नहीं है ॥५६॥ तात्पर्यवृत्ति अथेन्द्रियज्ञानं प्रत्यक्षं न भवती त व्यवस्थापयति पर से अक्खा तानि प्रसिद्धान्यक्षाणीन्द्रियाणि परद्रव्यं भवन्ति । कस्य ? आत्मनः क्षेत्र सहावो त्ति अध्यणो मणिया योसो विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभाव आत्मनः संबन्धी तत्स्वभावानि निश्चयेन न भणितानीन्द्रियाणि । कस्मात् ! भिन्नास्तित्वनिष्पन्नत्वात् । उबलद्धं तेहि उपलब्धं ज्ञातं यत्पञ्चेन्द्रियविषयभूतं वस्तु तैरिन्द्रियैः कहूं पच्चक्खं अप्पणी होदि तद्वस्तु कथं प्रत्यक्षं भवत्यात्मनो ? न कथमपीति । तथैव च नानामनोरथव्याप्तिविषये प्रतिपाद्यप्रतिपादकादिविकल्पजालरूपं यन्मनस्तदपीन्द्रियज्ञानवनिश्चयेन परोक्षं भवतीति ज्ञात्वा । किं कर्तव्यं ? सकलं काखण्ड प्रत्यक्ष प्रतिभासमयपरमज्योति कारणभूते स्वशुद्धात्मस्वरूपभावना समुत्पन्नपरमाह्लादै कलक्षण सुख संवित्त्या कारपरिण तिरूपे रागादिविकल्पोपाधिरहिते स्वसवेदनज्ञाने भावना कर्तव्या इत्यभिप्रायः ।। ५७ ।। उत्थानिका --- आगे कहते हैं कि इंद्रियज्ञान प्रत्यक्ष नहीं है अन्य सहित विशेषार्थ - (ते अक्खा) वे प्रसिद्ध पाँचों इन्द्रियों (अप्पणी) आत्मा की अर्थात् विशुद्ध ज्ञानदर्शन स्वभावधारी आत्मा की (सहावो णेव भणिया ) स्वभाव रूप निश्चय से नहीं कही गई हैं क्योंकि उनकी उत्पत्ति भिन्न पदार्थ से हुई है ( ति परं ददयं ) इसलिये वे परद्रव्य अर्थात् पुद्गल द्रव्यमयी हैं ( तेहि उबलद्धं ) उन इन्द्रियों के द्वारा जाना हुआ उन्हीं के विषय योग्य पदार्थ सो (अप्पणो पच्वक्खं कहं होदि ) आत्मा के प्रत्यक्ष किस तरह हो सकता है ? अर्थात् किसी भी तरह नहीं हो सकता है । जैसे पाँचों इन्द्रियाँ आत्मा के स्वरूप नहीं हैं ऐसे ही नाना मनोरथों के करने में 'यह बात कहने योग्य है, मैं कहने वाला हूँ इस तरह नाना विकल्पों के जाल को बनाने वाला जो मन है वह भी इन्द्रियज्ञान की तरह निश्चय से परोक्ष ही है, ऐसा जानकर क्या करना चाहिये सो सकते हैं- सर्व पदार्थों को एक साथ अखंड रूप से प्रकाश करने वाले परम ज्योतिस्वरूप केवलज्ञान के कारण रूप तथा अपने शुद्ध आत्मस्वरूप की भावना से उत्पन्न परम आनन्द एक लक्षण को रखने वाले सुख के वेवन के आकार में परिणमन करने वाले और रागद्वेषादि विकल्पों को उपाधि से रहित स्वसंवेदनज्ञान में भावना करनी चाहिये, यह अभिप्राय है ॥१५७॥
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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