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[ पवयणसारो
कारण से शद्ध है। जैसे सूक्ष्म निगोदिया जीय के ज्ञान में अन्य ज्ञान का आवरण होने पर भी क्षयोपशमज्ञान का सर्वथा आवरण नहीं है तैसे इस अन्तरात्मा अवस्था में केवलज्ञानावरण के होते हुए भी एक देश क्षयोपशमजानकी अपेक्षा आवरण नहीं है। जितने अंश में क्षयोपशमज्ञान राणादि भावों से रहित होकर शुद्ध है उत्तने अंश में यह मोक्ष का कारण है। इस अवस्था में शुद्ध पारिणामिक-भाव स्वरूप परमात्मा द्रव्य तो ध्येय (ध्यान करने योग्य) है । सो परमात्मा द्रव्य उस अन्तरात्मापने की ध्यान की अवस्था विशेष से कथंचित भिन्न है। यदि एकान्त से अन्तरात्मावस्था और परमात्मावस्था को अभिन्न या अभेद माना जाएगा तो मोक्ष में भी ध्यान प्राप्त हो जाएगा अथवा इस ध्यान पर्याय के विनाश होते हुए पारिणामिकभाव का भी विनाश हो जाएगा सो हो नहीं सकता। इस तरह बहिरात्मा, अन्तरात्मा तथा परमात्मा के कथन रूप से मोक्षमार्ग जानना चाहिये ।।२३७।।
अथागमज्ञानतत्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानां योगपद्येऽप्यात्मज्ञानस्य मोक्षमार्गसाधकतमत्यं द्योतयति
जं अण्णाणी कम्म खवेदि' भवसयसहस्सकोडीहि । तं गाणी तिहिं ग तो खवेदि उस्सासमेत्तेण ॥२३८।।
यदज्ञानी कर्म क्षपयति भवशतसहस्रकोटिभिः ।
तज्ज्ञानी विभिगुप्त: क्षपयत्युच्छवासमाश्रेण ॥२३॥ यदज्ञानी कर्म क्रमपरिपाट्या बालतपोवैचित्र्योपक्रमेण च पच्यमानमुपात्तरागढ - षतया सुखदुःखादिविकारभावपरिणतः पुनरारोपितसंतानं मवशतसहस्रकोटिभिः कथंचन निरस्तरति, तदेव ज्ञानी स्यात्कारकेतनागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयोगपधातिशयप्रसादासादितशुद्धज्ञानमयात्मतत्त्वानुभूतिलक्षणज्ञानित्वसद्भावात्कायवामनःकर्मोपरमप्रवृत्त - त्रिगुप्तत्वात् प्रचण्डोपक्रमपच्यमानमपहस्तितरागद्वेषतया दूरनिरस्तसमस्तसुखदुःखादिविकारः पुनरनारोपितसंतानमुच्छवासमात्रेणय लीलयव पातयति । अत आगमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्वानसंयतत्वयोगपधेऽप्यात्मज्ञानमेव मोक्षमार्गसाधकतममनुमन्तव्यम् ॥२३॥
_भूमिका-अब, आगमशान-सत्वार्थश्रद्धान-संयतत्व का युगपतत्व होने पर भी, आत्मज्ञान मोक्षमार्ग का साधकतम (उत्कृष्ट साधक) है, यह बतलाते हैं
अन्वयार्थ-[यत् कर्म] जो कर्म [अज्ञानी] अज्ञानी [भवशतसहस्रकोटिभिः] नक्ष कोटि भवों में [क्षपति] खपाता है, [तत्] वह [ज्ञानी] ज्ञानी (क्षपकश्रेणीवाला)
१. खवेइ (ज० ००), २. तण्णाणी (ज० वृ०), ३. खवेश (ज• वृ०) ।