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________________ पवयणसारो ] [ ५७१ [त्रिभि: गुप्तः] तीन प्रकार (मन वचन काय) से गुप्त होने से [उच्छवासमात्रेण उच्छ्वासमात्र में (क्षपयति) खपा देता है। __टीका--जो फर्म, (अज्ञानी को) क्रमपरिपाटी से तथा अनेक प्रकार के बालतपादिरूप उद्यम से पककर उदय में आते हये रागद्वेष को ग्रहण किया होने से सुखदुःखादिविकार भावरूप परिणमित होने से पुनः संतान को आरोपित करते हैं, उन कर्मों का अज्ञानी लक्षणकोटिभवों में जिस तिस प्रकार निस्तारा करता है, वही कर्म, ज्ञानी को स्यात्कारकेतन रूप आगम का ज्ञान, तत्वार्थश्रद्धान और संयतत्व इनकी युगपत्ता के अतिशय प्रसाद से प्राप्त शुद्ध ज्ञानमयी आत्मतत्व की अनुभूति जिसका लक्षण है ऐसे ज्ञानीपन के सद्भाव के कारण काय बचन मन को कौ के उपरम (रुकन) से त्रिगुप्त में प्रवर्तमान होने के (कारण) प्रचण्ड उद्यम से पकते हुए रागद्वेष के अभाव में समस्त सुखदुःखादिविकार अत्यन्त निरस्त हो जाने से, पुनःसन्तान को आरोपित नहीं करते, उन कर्मों को ज्ञानी उच्छ्वासमात्र में ही-लीलामात्र से नष्ट कर देता है। इससे, आगमज्ञान, तत्वार्थश्रद्धान और संयतत्व की युगपत्ता होने पर भी (क्षपक श्रेणी में होने वाले) आत्मज्ञान को ही मोक्षमार्ग का साधकतम संमत करना चाहिये ॥२३॥ __ भावार्थ-गाथा २३६ की टीका में एकानय परिणतता रूप श्रामण्य के मोक्षमार्ग कहा गया था । 'एकाग्रता' वीतरागनिर्विकल्पसमाधि अर्थात् श्रेणी में होती है। यहां पर आत्मज्ञान को मोक्षमार्ग का साधकतम कहा है। आगम ज्ञान, तत्वार्थश्रद्धान व संयम की एकता होने पर वह आत्म-ज्ञान होता है। इससे स्पष्ट है कि इस गाथा तथा गाथा २३६ में 'आत्मज्ञान' से अभिप्राय उस आत्मज्ञान से है जो वीतरागनिर्विकल्पसमाधि अर्थात् श्रेणी में होता है और वही आत्मज्ञान मोक्षमार्ग का साधकतम है और उसी आत्मजान, के बिना साक्षात् मोक्षमार्ग नहीं होता, इसलिये उस आत्मज्ञान के बिना आगमज्ञान तत्त्वार्थश्रद्धान और संयतत्व को अकिंचित्कर कहते हैं। तात्पर्यवृत्ति अथ परमागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानां भेदरत्नत्रयरूपाणां मेलापके पि यदभेदरत्नत्रयात्मकं निर्विकल्पसमाधिलक्षणमात्मज्ञानं निश्चयेन तदेव मुक्तिकारणमिति प्रतिपादयति--- जे अण्णाणी कम्म खवेई निर्विकल्पसमाधिरूपनिश्चयरत्नत्रयात्मकविशिष्टभेदज्ञानाभावादज्ञानी जीवो यत्कर्म अपयति । काभिः करणभूताभिः ? भवसयसहस्सफोडीहि भवशतसहस्रकोटिभिः तण्णाणी तिहि गुत्तो तत्कर्म ज्ञानी जीवस्त्रिगुप्तिगुप्तः सन् खवेइ उस्सासमेत्तेण क्षपयत्युच्छनासमात्रेणेति । तद्यथा-बहिर्विषये परमागमाभ्यासबलेन यत्सम्यकपरिज्ञानं तथैव श्रद्धानं व्रताय नुप्ठानं चेति त्रयं
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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