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________________ १५६ ] [ पवयणसारो इन्द्रियों के विषय मी मुक्तात्माओं के सुख के कारण नहीं होते हैं, ऐसा कहते हुए वो गाथाएँ पूर्ण हुई ॥ ६८ ॥ तात्पर्यवृति अथेदानीं श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवाः पूर्वोक्तलक्षणानन्त सुखाधारभूतं नमस्कुर्वन्ति - सर्वज्ञ वस्तुस्तवेन तेज बिट्ठी जाणं इड्ढी सोखं तहेव ईसरियं । तिहवणहाणदयं माह जस्स हो अरिहो ॥ ६६- १॥ तेजो विट्ठी गाणं इड्ढी सोमख सहेब ईसरियं तिहूवणपाणवइयं तेजः प्रभामण्डलं, जगत्त्रयकालत्रय वस्तुगतयुगपत्सामान्या स्तित्व ग्राहक केवलदर्शनं तथंव समस्तविशेषास्तित्व ग्राहक केवलज्ञानं, ऋद्धिदेन समादिमा विभूतः सुखदेनाव्या वाघान तसुख, तरपदाभिलाष इन्द्रादयोऽपि भूत्यत्वं कुर्वन्तीत्येवं लक्षणमैश्वयं त्रिभुवनाधीशानामपि वल्लभत्वं देवं भण्यते माहम्पं जस्स सो अरिहो इत्थंभूतं माहात्म्यं यस्य सोऽहंन् भण्यते । इति वस्तुस्तवनरूपेण नमस्कारं कृतवन्तः । उत्थानिका- आगे श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव पूर्व में कहे हुए लक्षण के धारी अनन्तसुख के आधारभूत सर्वज्ञ भगवान् को वस्तु स्वरूप से स्तवन की अपेक्षा नमस्कार करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ - ( तेजो) प्रभा का मण्डल ( दिट्ठी) तीन जगत् व तीन काल की समस्त वस्तुओं की सामान्य सत्ता को एक काल ग्रहण करने वाला केवलदर्शन ( णानं) तथा उनकी विशेष सत्ता को ग्रहण करने वाला केवलज्ञान ( इड्डी) समवशरण की सर्व विभूति (सोक्ख) बाधा रहित अनन्ततसुख (ईसरियं) व जिनके पद की इच्छा से इन्द्रादिक भी जिनकी सेवा करते हैं, ऐसा ईश्वरपना (तहेव तिहुवणपाणवइयं ) तैसे ही तीन भुवन के वल्लभपना या इष्टपना ऐसा देवपना इत्यादि ( जस्स माहप्प ) जिसका महात्म्य है ( सो अरिहो ) वही अरहंतदेव है । इस प्रकार वस्तु का स्वरूप कहते हुए नमस्कार किया ॥६८॥ १ ॥ तात्पर्यवृत्ति अथ तस्येव भगवतः सिद्धावस्यायां गुणस्तवन रूपेण नमस्कारं कुर्वन्तितं गुणदो अधिगवरं अविच्छिदं मणुवदेवपविभावं । बपुणतमावणिबद्धं प्रणममि पुणो- पुणो सिद्धं ॥ ६८-६ ॥ पणमामि नमस्करोमि पुणो पुणो पुनः पुनः । कं ? तं सिद्ध परमागमप्रसिद्ध सिद्ध । कथंभूतं ? गुणदो अधिगवरं अवयावाधानन्तसुखादिगुणं रधिकतरं समधिकतरगुणं । पुनरपि कथंभूतं ? अविच्छिदं मणुवदेवपविभा यथा पूर्वमर्हदवस्यायां मनुज देवेन्द्रादयः समवशरणं समागत्य नमस्कुर्वन्ति तेन प्रभुत्वं भवति, तदतिक्रान्तत्वादतिक्रान्तमनुजदेवपतिभावं । पुनश्च कि विशिष्टं ? अमावणिबद्ध व्रत्यक्षेत्रादिपञ्चप्रकारमवाद्धिलक्षणः शुद्धबुद्धे स्वभाव निजात्मोपलम्भलक्षणो योसी मोक्षस्तस्याधीन
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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