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________________ पवयणसारो ] [ १५७ स्वादपुनर्भावनिबद्धमिति भावः । एवं नमस्कारमुख्यत्वेन गाथाद्वयं गतम् । इति गायाष्टकेन पञ्चमस्थलं ज्ञातव्यं । एवमष्टादशगाथाभिः स्थल पञ्चकेन "सुखप्रपञ्च" नामान्तराधिकारो गतः । इति पूर्वोक्तप्रकारेण "एस सुरासुर" इत्यादि चतुर्दशगाथाभिः पोरिका गताः तदनन्तरं सप्तमायाभिः सामान्यसर्वज्ञसिद्धिः, तदनन्तरं त्रयत्रिंशद्गाथाभिः ज्ञानप्रपञ्चः तदनन्तरमष्टादशगाथाभिः सुखप्रपञ्च इति समुदायेन द्वासप्ततिगाथाभिरन्त राधिका र चतुष्टयेन शुद्धोपयोगाधिकारः समाप्तः । इत क पञ्चविंशतिगाथापर्यन्तं ज्ञानकण्ठिकाचतुष्टयाभिधानोऽधिकारः प्रारभ्यते, तत्र पञ्चविंशतिगाथामध्ये प्रथमं तावच्छुभाशुभ विषये मूढत्वनिराकरणार्थ "देव जदिगुरू" इत्यादि दशगाथः पर्यन्तं प्रथमज्ञानकण्ठिका कथ्यते । तदनन्तरमाप्तात्मस्वरूपपरिज्ञानविषये मूढत्वनिराकरणार्थ "चत्ता पावारम्भं" सप्तगाथापर्यन्तन्तं द्वितीयज्ञानकण्ठिका, अथानन्तरं द्रव्यगुणपर्यायपरिज्ञानविषये मूढत्वनिराकरणार्थं इत्यादि “दवादीएसु" इत्यादि षट्कगाथापर्यन्तं तृतीयज्ञानकण्ठिका । तदनन्तरं स्वपरतत्त्वपरिज्ञानविषये मूढत्वनिराकरणार्थ 'णाणपगं' इत्यादि गाथाद्वयेन चतुर्थज्ञानकण्ठिका । इति चतुष्टयाभिधानाधिकारे समुदायपातनिका । अथेदानीं प्रथमज्ञान कण्ठिकायां स्वतन्त्र व्याख्यानेन गाथाचतुष्टयं तदनन्तरं पुण्यं जीवस्य विषयतृष्णामुत्पादयतीति कथनरूपेण गाथाचतुष्टयं तदनन्तरमुपसंहाररूपेण गाथाद्वयं इति स्थलत्रयपर्यन्तं क्रमेण व्याख्यानं क्रियते । उत्थानिका— आगे सिद्ध भगवान् के गुणों का स्तवनरूप नमस्कार करते हैं । अन्वय सहित विशेषार्थ - ( तं ) उस (सिद्धं ) सिद्ध भगवान् को जो ( गुणदो अधिगतरं) अव्यावाध, अनन्तसुख आदि गुणो करके अतिशयपूर्ण हैं, ( अविच्छिदं मणुवदेवपदिभावं ) मनुष्य व देवों के स्वामीपने से उल्लंघन कर गए हैं अर्थात् जैसे पहले अरहंत अवस्था में मनुष्य व देव व इन्द्रादिक समवशरण में आकर नमस्कार करते थे, इससे प्रभुपना होता था अब यहां उस भाव को लांघ गए हैं । अर्थात् सिद्ध अवस्था में न समयशरण है न देवादि आते हैं, न प्रत्यक्ष नमस्कार करते हैं । भव, ( अपुणमायणिवद्ध ) तथा मुक्तावस्था में निश्चल अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप पंचपरावर्तन रूप संसार से विलक्षण शुद्ध बुद्ध एक स्वभावमय निज आत्मा की प्राप्ति है लक्षण जिसका ऐसी मोक्ष के अधीन हैं अर्थात् स्वाधीन व मुक्त हैं ( पुणो पुणो पणमामि ) बार बार नमस्कार करता हूँ । विशेष – यह है कि यहाँ टीकाकार ते अविच्छिदं तथा मणुवदेवपदिभावं इन दोनों पदों को एक में मानकर ऐसा अर्थ किया है । यदि हम इन दोनों पदों को अलग-अलग मान लें तो यह अर्थ होगा कि वह सिद्ध भगवान् अविनाशी हैं। उनकी अवस्था का कर्मों से अभाव नहीं होगा तथा वे मनुष्य व देषों के स्वामीपन को प्राप्त हैं अर्थात् उनसे महान् इस संसार में कोई प्राणी नहीं है । सब उन हो का ध्यान करते हैं । यहाँ तक कि तीर्थंकर भी सिद्धों का हो ध्यान छद्यस्थ अवस्था में करते हैं । इस प्रकार नमस्कार की मुख्यता से
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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