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________________ ३८६ ] [ पवयणसा परम भट्टारक, महादेवाधिदेव, परमेश्वर अर्हत सिद्ध और साधु को छोड़कर अन्य- उन्मार्ग की श्रद्धा करने में तथा विषय, कषाय, कुश्रवण, कुविचार, कुसंगति और उग्रता का आचरण करने में प्रवृत्त है, वह अशुभोपयोग है ॥ १५८ ॥ तात्पर्यवृत्ति अशुभयोगस्वरूपं निरूपयति | बिसयकसाओगाढो विषयकषायावगाढः दुस्सुदिदुखि बुट्ठ गोजुदो दुःश्रुतिदुश्चित्तदुष्ठगोष्ठियुतः जग्गो उग्र: उम्मग्गपरो उन्मार्गपरः उबओगो एवं विशेषणचतुष्टययुक्त उपयोगः परिणामः जस्स यस्य जीवस्य भवति सो असुहो स उपयोगस्त्वशुभोपयोगो भण्यते, अभेदेन पुरुषो वा । तथाहि - विषय - कष्णरहितशुद्धचैतन्यपरिणतेः प्रतिपक्षको विषयकषायावगाढ़ी विषय कषायपरिणतः । शुद्धात्मतत्त्वप्रतिपादिका श्रुतिः सुश्रुतिस्तद्विलक्षणा दुःश्रुतिः मिथ्याशास्त्रश्रुतिर्वा । निश्चिन्तात्मध्यानपरिणतं सुचित्तं तद्विनाशकं दुश्चित्तम्, स्वपरनिमित्तेष्टकामभोग चिन्तापरिणतं रागाद्यपध्यानं वा । परमचैतन्यपरिणतेविनाशिका दुष्टगोष्ठी तत्प्रतिपक्षभूत कुशीलपुरुषगोष्टी वा इत्यंभूतं दुःश्रुतिदुश्चित्तदुष्टगोष्ठीभिर्युतो दुःश्रुतिदुश्चित्तदुष्टगोष्ठियुक्तः परमोपशम भावपरिणतपरमचैतन्य स्वभावात्प्रतिकूलः उग्र: बीतरागसर्वज्ञप्रणीतनिश्चयव्यवहारमोक्षमार्गाद्विलक्षण उन्मार्गपरः । इत्थंभूत विशेषणचतुष्टयसहित उपयोगः परिणामः । तत्परिणतपुरुषो वेत्यशुभोपयोगो भण्यत इत्यर्थं ॥ १५८ ॥ उत्थानिका— आगे अशुभोपयोग का स्वरूप कहते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ - ( जस्स) जिस जीव का ( उवओगी) उपयोग ( विसयकसाओगा) विषयों की और कषायों की तीव्रता से भरा हुआ है ( दुस्सुदिदुच्चित दुट्ठगोहिजुदो ) खोटे शास्त्र पढ़ने सुनने, खोटा विचार करने व खोटी संगतिमपूर्ण वार्तालाप में लगा हुआ है, ( उग्गो) हिंसादि में उद्यमी दुष्ट रूप है, (उम्मम्गपरो ) तथा मिथ्यामागं में तत्पर है, ऐसे चार विशेषण सहित है ( सो असुहो) सो अशुभ है । जो विषय कषाय- रहित शुद्ध चैतन्य की परिणति से विरुद्ध विषय कषायों में परिणमन करने वाला है उसे विषय कायगढ़ कहते हैं । शुद्ध आत्मतत्व को उपदेश करने वाले शास्त्र को सुश्रुति कहते हैं उससे विलक्षण मिथ्याशास्त्र को दुःश्रुति कहते हैं । निश्चिन्त होकर आत्मध्यान में परिणमन करने वाले मन को सुचित्त कहते हैं। व्यर्थ या अपने और दूसरे के लिये इष्ट कामभोगों को चिता में लगे हुए रागादि अपध्यान को दुश्चित्त कहते हैं, परम चैतन्य परिणति को उत्पन्न करने वाली शुभ गोष्ठी है या संगति व उससे उल्टी कुशील या खोटें पुरुषों के साथ गोष्ठी करना दुष्ट गोष्टी है । इस तरह तीन रूप जो वर्तन करता है उसे दुःश्रुति, दुश्चित्त, दुष्टगोष्ठी से युक्त कहते हैं । परम उपशम भाव में परिणमन करने वाले परम चैतन्य स्वभाव से उल्टे भाव हिंसादि में लीन है उग्र कहते हैं, वीतराग सर्वज्ञ
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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