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________________ पवयणसारो ] [ ३३७ अप्रवेशी है, सथापि दो प्रवेशों से लेकर संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेशों वाली पर्यायों को अपेक्षा से अनिश्चित प्रदेश वाला होने से, प्रदेशवान् है। सकल लोक-व्यापी असंख्य प्रदेशों के विस्ताररूप होने से धर्म प्रदेशवान है। सकललोक-व्यापी असंख्य प्रदेशों के विस्ताररूप होने से अधर्मद्रध्य प्रदेशवान है। सर्व-व्यापी अनन्त प्रदेशों के विस्तार रूप होने से आकाश प्रदेशवान् है। कालाणु तो, द्रव्यतः प्रदेशमात्र होने से और पर्यायतः परस्पर सम्पर्क न होने से, अप्रदेशी है। इसलिये कालद्रव्य अप्रदेशी है और शेष द्रव्य प्रदेशवान् हैं ॥१३॥ तात्पर्यवृत्ति अथ काल द्रव्यं विहाय जीवादिपञ्चद्रव्याणामस्तिकायत्वं व्याख्याति, जीवा पोग्गलकाया धम्माधम्मा पुणो य आयासं जीवाः पुद्गलकायाः धर्माधर्मों पुनश्चाकाशम्। सपदेसेहि असंखा। एते पंचास्तिकायाः किविशिष्टाः ? स्वप्रदेशैरसंख्येयाः । अत्रासंख्येयप्रदेशशब्देन प्रदेशबहुत्वं ग्राह्यम् । तच्च यथासम्भवं योजनीयम् । जीवस्य तावत्संसारावस्थायां विस्तारोपसंहारयोरपि प्रदीपबत्प्रदेशानां हानिवृद्धयोरभावाद्वयवहारेण देहमात्रेऽपि निश्चयेन लोकाकाशप्रमितासंख्येयप्रदेशत्वम् । धर्माधर्मयोः पुनरवस्थितरूपेण लोकाकाशप्रमितासंख्येयप्रदेशत्वम् । स्कन्धाकारपरिणतपुद्गलानां तु संख्येयासंख्येयानन्तप्रदेशत्वम् । किन्तु पुद्गलव्याख्यानेन प्रदेश शब्देन परमाणवो ग्राह्या, न च क्षेत्रप्रदेशा: । कस्मात्पुद्गलानामनन्तप्रदेशक्षेवेऽवस्थानाभावादिति ? परमाणोव्यक्तिरूपेणैकप्रदेशत्वं शक्तिरूपेणोपचारेण बहुप्रदेशत्वं च । आकाशस्यानन्ता इति । णस्थि पदेसत्ति कालस्स न सन्ति प्रदेशा इति कालस्य । कस्माद्ध्यरूपेणैकप्रदेशत्त्वात् ? परस्परसम्बन्धाभावात्पर्यायरूपेणापीति ।।१३।। उत्थानिका—आगे काल द्रव्य को छोड़कर जीव आदि पाँच द्रव्यों के अस्तिकायपना है ऐसा व्याख्यान करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ—(जीया पोग्गलकाया) अनन्तानंत जीव और अनन्तानन्त पुद्गल (धम्माऽधम्मा) एक धर्मद्रव्य एक अधर्मद्रव्य (पुणो य आयासं) और एक आकाश द्रव्य (देसेहि असंखादा) अपने प्रदेशों की गणना की अपेक्षा संख्या-रहित हैं, (कालस्स पत्थि पदेसत्ति) काल द्रव्य के बहुत प्रदेश नहीं हैं। यहां पर 'असंख्यात प्रदेश' शब्द से बह-प्रदेशी' ग्रहण करना चाहिये । वह यहां यथासम्भव घटित कर लेना चाहिये । हर एक जीव संसार को अवस्था में व्यवहारनय से अपने प्रदेशों में संकोच विस्तार होने के कारण से दीपक के प्रकाश की तरह अपने प्रदेशों की संख्या में कमती व बढ़ती न होता हुआ शरीर के प्रमाण आकार रहता है तो भी निश्चय से लोकाकाश के बराबर असंख्यात प्रदेश चाला है। धर्म और अधर्म सदा ही स्थित हैं उनके प्रदेश लोकाकाश के बराबर असंख्यात हैं। स्कंध अवस्था में परिणमन किये हुए पुद्गलों के संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेश होते हैं,
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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