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________________ ३३६ ] [ पवयणसारो यद्यपि पाँच द्रव्य जीव का उपकार करते हैं तो भी इनको दुःख का कारण जान करके नो अक्षय और अनन्तसुख आदि का कारण विशुद्ध ज्ञान दर्शन-स्वभावरूप परमात्म द्रव्य है उसी को ही मन से ध्याना चाहिये, वचन से उसका ही वर्णन करना चाहिये, तथा शरीर से उस हो का साधक जो अनुष्ठान या क्रियाकर्म है, उसको करना चाहिये ॥१३३-१३४॥ इस तरह किस द्रव्य के क्या विशेष गुण होते हैं ऐसा कहते हुए तीसरे स्थल में तीन गाथाएँ पूर्ण हुई। अय द्रव्याणां प्रवेशवत्थाप्रदेशवत्वविशेषं प्रज्ञापयति जीवा पोग्गलकाया धम्माधम्मा पुणो य आगासं। सपदेसेहि असंखादा' पत्थि पदेस त्ति कालस्स ॥१३॥ जीवाः पुद्गलकाया धर्माधमौं पूनश्चाकाशम् । स्वप्रदेशरसंख्याता न सन्ति प्रदेशा इति कालस्य ॥१३॥ प्रदेशवन्ति हि जीवपुद्गलधर्माधर्माकाशानि अनेकप्रदेशवत्त्वात् । अप्रदेशः कालाणुः प्रदेशमात्रत्वात् । अस्ति च संवर्तविस्तारयोरपि लोकाकाशतुल्यासंख्येयप्रदेशापरित्यागाज्जीवस्य, ध्येण प्रदेशमात्रत्वादप्रदेशत्स्वेऽपि द्विप्रदेशाविसंख्येयासंख्येयानन्तप्रवेशपर्यायेणानवधारितप्रदेशत्वात्पुद्गलस्य, सकललोकव्याप्यसंख्येयप्रदेशप्रस्ताररूपत्वात् धर्मस्य, सकललोकच्याप्यसंख्येयप्रदेशप्रस्ताररूपत्वावधर्मस्य, सर्वव्याप्यनन्तप्रदेशप्रस्ताररूपत्वादाकाशस्य च प्रदेशवत्वम् । कालाणोस्तु द्रोण प्रदेशमात्रत्वात्पर्यायेण तु परस्परसंपर्कासंभवावप्रवेशत्व. मेवास्ति । ततः कालद्रव्यमप्रदेशं शेषद्रव्याणि प्रदेशवन्ति ॥१३४॥ भूमिका-अब, द्रव्यों का प्रवेशवत्व और अप्रदेशवत्वरूप विशेष (भेद) बतलाते हैं अन्वयार्थ— [जीवाः] जीद, [पुद्गलकायाः] पुद्गलकाय (पुद्गल-स्कंध), [धर्मा. धमौं ] धर्म, अधर्म [पुनः च] और [आकाशं] आकाश [स्वप्रदेशः] स्वप्रदेशों की अपेक्षा से [असंख्याताः] असंख्यात अर्थात् अनेक (एक से अधिक प्रदेश वाले) हैं, [इति] इस प्रकार [कालस्य] काल के [प्रदेशाः] अनेक प्रदेश [न सन्ति] नहीं हैं। टीका-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाशद्रव्य अनेक प्रदेश वाले होने से प्रदेशवान हैं । कालाणु प्रवेश मात्र (एक प्रदेशी) होने से अप्रदेशी है । इसी को स्पष्ट करते हैं-) संकोच-विस्तार के होने पर भी जीव लोकाकाशतुल्य असंख्य प्रदेशों को नहीं छोड़ता, इसलिये वह प्रवेशवान् है । पुद्गल, यद्यपि द्रव्य अपेक्षा से प्रदेशमात्र (एक प्रदेशी) होने से १. असंखा।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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