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________________ पवयणसारो ] । ५७७ तात्पर्यवृत्ति अथागमज्ञानतत्वार्थश्रद्धानसंयतत्त्वानां ग्रयाणां यत्सविकल्पं योगपद्यं तथा निविकल्पात्मज्ञानं चेति द्वयोः सम्भवं दर्शयति पंचसमिदो व्यवहारेण पञ्चसमितिभिः समितः संवृतः पंचसमितः निश्चयेन तु स्वस्वरूपे सम्यगितो गतः परिणतः समितः तिगुत्तो व्यवहारेण मनोवचनकायनिरोधत्रयेण गुप्त: त्रिगुप्तः निश्चयेन स्वरूपे गुप्तः परिणतः पंचेंदियसंउडो व्यवहारेण पंचेन्द्रियविषयव्यावृत्त्या संवृतः पंचेन्द्रियसंवृतः निश्चयेन पातीन्द्रियसुखस्वादरतः जियकसाओ व्यवहारेण क्रोधादिकषायजयेन जितकषायः निश्चयेन चाकषायात्मभावनारत: सणणाणसमग्गो अत्र दर्शनशब्देन निजशुद्धात्मश्रद्धानरूपं सम्यरदर्शनं ग्राह्यम् । ज्ञानशब्देन तु स्वसंवेदनज्ञानमिति ताभ्यां समग्रो दर्शनज्ञानसमनः समणो सो संजदो भणिदो स एवं गुणविशिष्ट: श्रमणः संयत इति भणितः । अत एतदायातं व्यवहारेण यद्बहिर्विषये व्याख्यानं कृतं तेन सबिकल्पं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र त्रयं योगपद्यं ग्राह्यम् । अभ्यन्तरव्याख्यानेन तु निर्विकल्पात्मज्ञानं ग्राह्यमिति सविकल्पयोगपद्यं निर्विकल्पात्मज्ञानं च घटत इति ॥२४०।। . नत्थानिका-आगे आगम का ज्ञान, तत्वार्थ-श्रद्धान, संयमपना इन तीनों को भेद रूप से एक काल में प्राप्ति तथा निर्विकल्प आत्मज्ञान इन दोनों का संभवपना दिखलाते हैं अर्थात् इन सबिकल्प और अविकल्प भाव के धारी का स्वरूप बताते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(पंचसमिदो) जो पांच समितियों का धारी है, (तिगुत्तो) तीन गुप्ति में लीन है, (पंचेदियसंउडो) पांच इन्द्रियों का विजयी है, (जियकसाओ) कषायों को जीतने वाला है (बंसणणाण समगो) सम्यग्दर्शन और सम्याज्ञान से पूर्ण है (सो समणो) वह साध (संजदो) संयमी (भणियो) कहा गया है। जो व्यवहारनय से पांच समितियों से युक्त है, निश्चयनय से अपने आत्मा के स्वरूप में भले प्रकार परिणमन कर रहा है। जो व्यवहारनय से मन वचन काय को रोक करके त्रिगुप्त है, निश्चयनय से अपने स्वरूप में लीन है । जो व्यवहार करके स्पर्शनादि पांचों इन्द्रियों के विषयों से हट करके संवृत्त है, निश्चय से अतींद्रियसुख के स्वाद में रत है। जो व्यवहार करके क्रोधादि कषायों को जीत लेने से जितकषाय है। निश्चयनय से अकषाय आत्मा की भावना में रत है। जो अपने शुद्धात्मा का श्रद्धान सो सम्यग्दर्शन तथा स्वसंवेदनज्ञान इन दोनों से युक्त है गुणों का धारी वही साधु संघमी है, ऐसा कहा गया है। इससे यह सिद्ध किया गया है कि व्यवहार में जो बाहरी पदार्थों के सम्बन्ध में व्याख्यान किया गया उससे सविकल्प सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तीनों को एक साथ होना चाहिये, भीतरी आत्मा की अपेक्षा व्याख्यान से निर्विकल्प आत्मज्ञान लेना चाहिये । सविकल्प वर्शन ज्ञान पारिन इन तीनों की युगपत्ता तथा निर्विकल्प आत्मज्ञान घटित होते हैं ॥२४०॥
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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