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________________ १०८ ] ! पवयणसारो अन्वयार्थ- [यत् | जो [युगपत् ] एक ही साथ ।समन्ततः] सर्वतः (सर्व आत्मप्रदेशों से) [तात्कालिक] तात्कालिक (वर्तमानकालीन) [इतरं] या अतात्कालिक (भूत भविष्यत्) [विचित्र विचित्र (अनेक प्रकार के) और [विषमं] विषम (मूर्त-अमृत, चेतनअचेतन आदि असमान जाति के) [सर्व अर्थ] समस्त पदार्थों को [जानाति] जानता है [तत् ज्ञानं] वह ज्ञान [क्षायिक भणितं] क्षायिक कहा गया है। टीका-(१) वर्तमान काल में वर्तते, (२) भूत-भविष्यत् काल में वर्तते, (३) जिनमें पथक रूप से वर्तते स्वलक्षण रूप लक्ष्मी से आलोकित अनेक प्रकारों के कारण वैचित्र्य प्रगट हआ है, (४) और जिनमें परस्पर विरोध से उत्पन्न होने वाली असमान जातीयता के कारण वैषम्य प्रगट हुआ है, ऐसे (चार विशेषण वाले) समस्त पदार्थ समूह को एक समय में ही (युगपत्), सर्वतः (सर्व आत्म प्रदेशों से) क्षायिकज्ञान वास्तव में जानता है । इसी बात को युक्तिपूर्वक स्पष्ट रूप से समझाते हैं-(१) उस (केवलज्ञान) के वास्तव में कम-प्रवृत्ति के हेतु भूत, क्षयोपशम अवस्था में रहने वाले ज्ञानावरणीय कर्म-पुद्गलों का अत्यन्त अभाव होने से (बह क्षायिकज्ञान) तात्कालिक या अतात्कालिक पदार्थ-समूह को समकाल में (युगपत्) ही प्रकाशित करता है । (२) सर्वतः (सर्व प्रदेशों से) विशुद्ध (उस क्षायिक ज्ञान) के प्रतिनियत प्रदेशों की विशुद्धि (सवंतः विशुद्धि) के भीतर डूब जाने से, (वह क्षायिक ज्ञान) सर्वतः (सर्व आत्म-प्रदेशों से) ही प्रकाशित करता है। (३) सर्व आवरण का क्षय होने से, देश आवरण रूप क्षयोपशम के न रहने से (वह क्षायिकज्ञान) सबको भी प्रकाशित करता है (४) सर्व प्रकार ज्ञानावरणीय के क्षय से असर्व प्रकार के ज्ञानावरणीय के क्षयोपशम के नाश होने से (यह क्षायिकज्ञान) विचित्र को (अनेक प्रकार के पदार्थों को) भी प्रकाशित करता है। (५) असमानजातीय ज्ञानावरण के क्षय से समान जातीय ज्ञानावरण के क्षयोपशम के नष्ट हो जाने से, (वह क्षायिकज्ञान) विषम को भी (असमानजाति के पदार्थों को भी) प्रकाशित करता है। सार-अथवा, अतिविस्तार से बस हो जिसका अनिवारित (रुकावट रहित फैलाव है) ऐसे प्रकाश स्वभावी होने से, क्षायिकज्ञान अवश्य ही सर्वदा (सर्वकालीन त्रिकालीन), सर्वत्र (सब क्षेत्र के लोक-अलोक के) सब पदार्थ को सर्वथा (सम्पूर्णरूप से) जाने अर्थात् जानता है। तात्पर्यवृत्ति अथ प्रथम तावात् केवलज्ञानमेव सर्वज्ञस्वरूपं, लदनन्तरं सर्वपरिज्ञाने सति एकपरिज्ञानं, एकपरिज्ञाने सति सर्व परिज्ञानमित्यादिकथनरूपेण गाथापच्चकपर्यन्तं व्याख्यानं करोति । तद्यथा- अत्र ज्ञानप्रपञ्चध्याख्यानं प्रकृतं तावत्तत्प्रस्तुतमनुसृत्य पुनरपि केवलज्ञानं सर्वज्ञत्वेन निरूपयति
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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