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________________ पवयणसारो ] [ १०६ जं यज्ज्ञानं कर्तृ जाणदि जानाति । के ? अत्थं अर्थ पदार्थमिति विशेष्यपदं । किं विशिष्टं ? सक्कालियमिवर तात्कालिके वर्तमानमितरं चातीतानागतम् । कथं जानाति ? जुगवं युगपदेकसम ये समंत समन्ततः सर्वात्मप्रकारेण वा । कतिसख्योपेतं? सव्ध समस्तं । पुनरपि किविशिष्ट ? विचित्तं नानाभेदभिन्नं । पुनरपि किरूपं ? यिसमं मूर्तामूर्तचेतनाचेतनादिजात्यन्त र विशेष विसदृशं तं गाणं खाइयं मणियं यदेवं गुणविशिष्टं शायि पिता। अभेदनगेन तदेत सर्वजस्वरूपं तदेवोपादेयभूतानन्तसुखाद्यनन्तगुणानामाधारभूतं सर्व प्रकारोपादेयरूपेण भावनीयम् । इति तात्पर्यम् ॥४७॥ उत्थानिका—आगे कहते हैं कि केवलज्ञान ही सर्वज्ञ का स्वरूप है। आगे कहेंगे कि सर्वज्ञ को जानते हुए एक का ज्ञान होता है तथा एक को जानते हुए सर्व का ज्ञान होता हैं। इस तरह पाँच गाथाओं तक व्याख्यान करते हैं। उनमें से प्रथम ही निरूपण करते हैं क्योंकि यहाँ ज्ञान प्रपंच के व्याख्यान की मुख्यता है, इसलिये उस ही को आगे लेकर फिर कहते हैं कि केवलज्ञान सर्वज्ञरूप है। ___अन्वय सहित विशेषार्थ—(ज) जो ज्ञान (समंतदो) सर्व प्रकार से आत्मा के प्रदेशों से (विचित्तं विसम) नाना भेवरूप अनेक जाति के मृत अमूर्त, चेतन-अचेतन, आधि (सम्वं अत्थं) सर्व पदार्थों को (तत्कालिगं) वर्तमान काल सम्बन्धी तथा (इतरं) भूत, भविष्यत् काल सम्बन्धी पर्यायों सहित (जुगवं) एक समय में व एक साथ (जाणदि) जानता है। (तं गाणं) उस ज्ञान को (खाइयं) क्षायिक (भणियं) कहा है । अभेद नय से वही सर्वज्ञ का स्वरूप है इसलिये वही ग्रहण करने योग्य अनन्त सुख आदि अनन्त गुणों का आधारभूत सब तरह से प्राप्त करने योग्य है, इस रूप से भावना करनी चाहिए। यह तात्पर्य है ॥४६॥ अथ सर्वमजानन्नेकमपि न जानातीति निश्चिनोतिजो ण विजाणदि जुगवं अत्थे तिक्कालिगे तिहुवणत्थे । णा तस्स ण सक्कं सपज्जयं दत्वमेगं वा ॥४८॥ यो न विजानाति युगपदर्थान् वकालिकान् त्रिभुवनस्थान् । ज्ञातुं तस्य न शक्यं सपर्ययं द्रष्य मेक वा ॥४८॥ इह किलंकमाकाशद्रव्यमेकं धर्मद्रव्यमेकमधर्मद्रध्यमसंख्येयानि कालद्रव्याण्यनन्तानि जीवद्रव्याणि । ततोऽप्यनन्तगुणानि पुद्गलद्रव्याणि । तथैषामेव प्रत्येकमतीतानागतानुभूयमानभेदभिन्न निरवधिवृत्तिप्रवाहपरिपातिनोऽनन्ताः पर्यायाः । एवमेतत्समस्तमपि समुदित ज्ञेयं, इहैवैफ किचिज्जीवद्रव्यं ज्ञात । अथ यथा समस्तं दाह्य दहन वहनः समस्त वाह्यहेतुकसमस्तदायाकारपर्यायपरिणतसकलैकबहनाकारमात्मानं परिणमति, तथा समस्तं ज्ञेयं जानन माता समस्तशेयहेनुकसमस्तजेयाकारपर्यायपरिणतसकलैकज्ञानाकार चेतनत्वात्
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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