________________
पवयणसारो ]
[ १०७ जीवमायाणं) सर्व ही जीव-समूहों को (संसारो यि ण विज्जइ) संसार अवस्था ही नहीं रहेगी । अर्थात् संसार रहित शुद्ध आत्मस्वरूप से प्रतिपक्षी जो संसार सो व्यवहारनय से नहीं रहेगा।
भाव यह है कि आत्मा परिणमनशील है। वह कर्मों की उपाधि के निमित्त से स्फटिकमणि की तरह उपाधि को ग्रहण करता है इस कारण संसार का अभाव नहीं है । अब कोई शंकाकार कहता है कि साख्यों के यहां संसार का अभाव होना दूषण नहीं है किन्तु भूषण ही है ? उसका समाधान करते हैं कि ऐसा नहीं है। क्योंकि संसार के अभाव को ही मोक्ष कहते हैं सो मोक्ष संसारी जीवों के भीतर नहीं दिखलाई पड़ता है, इसलिये प्रत्यक्ष में विरोध आता है। ऐसा भाव है ॥४६॥
इस तरह यह बताया कि राग-द्वेष-मोह बन्ध के कारण हैं, ज्ञान बन्ध का कारण नहीं है इत्यादि कथन करते हुये छठे स्थल में पांच गाथाएं पूर्ण हुई।
अथ पुनरपि प्रकृतमनुसृत्यातीन्द्रियज्ञानं सर्वज्ञत्वेनाभिनन्दति--
जं तक्कालियमिदरं जाणदि जुगवं समतदो सव्वं । अस्थं विचित्तविसमं तं गाणं 'खाइगं भणियं ॥४७॥
यत्तात्कालिकामितरं जानाति युगपत्समन्ततः सर्वम् ।
अर्थ विचित्रविषमं तत् ज्ञानं क्षायिक भणितम् ॥४॥ तत्कालकलितवृत्तिकमतीतोदकालकलिलवृत्तिकं चाप्येकपद एव समन्ततोऽपि सकलमप्यर्थजातं पृथक्त्ववृत्तस्ववृत्तणलक्ष्मीकटाक्षितानेकप्रकारव्यजितवैचित्र्यमितरेतरविरोधधापितासमान जातीयत्वोहामितवषम्यं क्षायिकं ज्ञानं किल जानीयात् । तस्य हि क्रमप्रवृत्तिहेतुभूतानां क्षयोपशमावस्थावस्थितज्ञानावरणीयकर्मपुद्गलानामत्यन्ताभाघातात्कालिकमतात्कालिकदाप्यर्थजातं तुल्यकालमेव प्रकाशैत । सर्वतो विशद्वस्थ प्रतिनियतदेशविशद्वेरन्तःप्लवनात समन्ततोऽपि प्रकाशेत । सर्वावरणक्षया शावरणक्षयोपशमस्यानवस्थानात्सर्वमपि प्रकाशेत । सर्वप्रकारज्ञानावरणीयक्षयावसर्वप्रकारज्ञानाधरणीयक्षयोपशमस्य विलयनाद्धिचित्रमपि प्रकाशेत । असमानजातीयज्ञानावरणक्षयात्समानजातीयज्ञानावरणीयक्षयोपशमस्य विनाशनाद्विषममपि प्रकाशेत । अलमथवातिविस्तरेण, अनिवारितप्रसरप्रकाशशालितया क्षायिकज्ञानमवश्यमेव सर्वदा सर्वत्र सर्वथा सर्वमेव जानीयात् ॥४७॥
___ भूमिका-अब, पुनः प्रकृत (चालू विषय) को अनुसरण करके अतीन्द्रियज्ञान को सर्वज्ञपने से अभिनन्दन करते हैं (अतीन्द्रियज्ञान सबका ज्ञाता है, इस प्रकार उसको प्रशंसा करते हैं):
१. खायं (ज०७०)