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________________ [ पत्रयणसारो नित्य मुक्तता को किया जा सकता, शुभ-अशुभ, १०६ ] कारणों से रहित सिद्ध होने से, संसार के अभाव रूप स्वभाव के कारण प्राप्त हो जायेंगे ( नित्य मुक्त सिद्ध होंगे ) किन्तु ऐसा स्वीकार नहीं क्योंकि आत्मा के परिणमन धर्म के कारण (परिषी होने के निज भावपता प्रकाशित ( प्रगट ) है, "स्फटिकमणि के जपाकुसुम और तमाल-पुष्प के रङ्गनिज - भावपने (निज परिणाम) की तरह ।" भावार्थ – जैसे स्फटिकमणि लाल और काले फूल के निमित्त से लाल और काले निज भाव से परिणत होती है, उसी प्रकार आत्मा कर्मोपाधि के निमित्त से शुभ-अशुभ निजभाव रूप से परिणत होता है ॥४६॥ तात्पर्य वृत्ति अथ यथार्हतां शुभाशुभपरिणामविकारो नास्ति तकान्तेन संसारिणामपि नास्तीति सांख्यमतानुसारिशिष्येण पूर्वपक्ष कृते सति दूषणद्वारेण परिहारं ददाति - जदि सो सुहो व असुहो ण हवदि आबा सयं सहावेण यथैव शुद्धनयेनात्मा शुभाशुभाभ्यां न परिणमति तथैवाशुद्धन येनापि स्वयं स्वकीयोपादानकारणेन स्वभावेनाशुद्धनिश्चयरूपेणापि यदि न परिणमति तदा । किं दूषणं भवति । संसारोषि ण विज्जह निस्संसारशुद्धात्म स्वरूपात्प्रतिपक्षभूतो व्यवहारनयेनापि संसारो न विद्यते । केषां ? सम्बेसि जीवकायाण सर्वेषां जीवसंवातानामिति । तथाहि - आत्मा तावत्परिणामी स च कर्मोपाधिनिमित्ते सति स्फटिकमणिरिवोपाधि गृह्णाति ततः कारणात्संसाराभावो न भवति । अथ मतं - संसाराभावः सख्यिानां दूषणं न भवति, भूषणमेव । नैवम् । संसाराभावो हि मोक्षो भण्यते स च संसारिजीवानी न दृश्यते, प्रत्यक्षविरोधादिति भावार्थः ।।४६।। एवं रागादयो बन्धकारणं न च ज्ञानमित्यादिव्याख्यानमुख्यत्वेन षष्ठस्थले गाथापञ्चकं गतम् । उत्थानिका—- आगे जैसे अरहंतों के शुभ व अशुभ परिणाम के विकार नहीं होते तो एकान्त से संसारी जीवों के भी नहीं होते, ऐसे सांख्यमत के अनुसार चलने वाले शिष्य ने अपना पूर्वपक्ष किया, उसको दूषण देते हुए समाधान करते हैं— अथवा केवली भगवानों की तरह सर्वे ही संसारी जीवों के स्वभाव के घात का अभाव है, इस बात का निषेध करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ - ( अदि ) यदि ( सो आदा) वह आत्मा ( सहावेण ) स्वभाव से ( स ) आप हो ( सुहो) शुभ परिणामरूप (व असुहो ) अथवा अशुभ परिणाम रूप ( ण हवदि) नहीं होता है । अर्थात् 'जैसे शुद्धनय करके आत्मा शुभ या अशुभ भावों से अपने ही उपादानकारण से अर्थात् अशुभभावरूप नहीं परिणमन करता उसके लिये कहते हैं कि ( सवेंसि नहीं परिजन करता है तैसे ही अशुद्धनय से भी स्वयं स्वभाव से अथवा अशुद्ध निश्चय से भी यदि शुभ या है। ऐसा यदि माना जावे तो क्या दूषण आयेगा,
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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