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________________ पवयणसारो ] [ ४०५ अतिसूक्ष्मस्थूलचन कवर्गणीता रहितः । गुना किविशिष्टै: ? जोग्गेहिं अतिसूक्ष्मस्थूलत्वाभावाकर्मवर्गणायोग्यरिति । अयमत्रार्थ:- निश्चयेन शुद्धस्वरूपरपि व्यवहारेण कर्मोदयाधीनता पृथिव्यादिपञ्चसूक्ष्मस्थावरत्वं प्राप्तीवर्यथा लोको निरन्तरं भूतस्तिष्ठति तथा पुद्गलरपि । ततो ज्ञायते यत्रैव शरीरावगाडक्षेत्रे जीवस्तिष्ठति बन्धयोग्यपुद्गला अपि तत्रव तिष्ठन्ति न च बहिर्भागाज्जीव आयनतीति ॥१६८।। उत्थानिका--आगे यह आत्मा बन्ध काल में बन्ध-योग्य पुद्गलों को कहीं बाहर से नहीं लाता है, ऐसा प्रगट करते हैं--- अन्वय सहित विशेषार्थ—(लोगो) यह लोक (सव्वदो) अपने सर्व प्रदेशों में (मुहमेहि) सूक्ष्म अर्थात् इन्द्रियों से ग्रहण के अयोग्य (बादरेहि) बादर अर्थात् इन्द्रियों के ग्रहण योग्य (य) और (अप्पा उग्गेहि) कर्मवगंणारूप होने के अयोग्य (जोग्गेहि) तथा कर्मवर्गणा के योग्य (पुग्गलकायेहिं) पुद्गल स्कन्धों से (भोरगाढगाणिचिओ) खूब अच्छी तरह बहुत गाढ़ा भरा हुआ है। यह लोक अपने सर्व प्रदेशों में पुद्गलस्कन्धों से गाढ़ा भरा हुआ है । वे स्कन्ध कोई इन्द्रियगोचर हैं, कोई इन्द्रियगोचर नहीं है, उनमें से जो अत्यन्त सूक्ष्म या स्थूल हैं ये कर्मवर्गणारूप नहीं हैं किन्तु जो अतिसूक्ष्म व स्थूल नहीं हैं वे कर्मवर्गणा के योग्य हैं। यद्यपि इन्द्रियों से ग्रहण न होने के कारण ये भी सूक्ष्म हैं। यहाँ यह भाव है कि जैसे यह लोक निश्चयनय से शुद्ध-स्वरूप के धारी किन्तु व्यवहारनय से कर्मों के अधीन होने से, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, बनस्पति के पांच भेदरूप सूक्ष्मस्थावर शरीरों को प्राप्त जीवों से निरन्तर सर्व जगह भरा हुआ है तैसे यह युद्गलों से भी भरा है इससे जाना जाता है कि जितने शरीर को रोककर एक जीव ठहरता है उसी ही क्षेत्र में कर्मयोग्य पुद्गल भी तिष्ठ रहे हैं-जीव उनको कहीं बाहर से नहीं लाता है ॥१६॥ अथात्मनः पुद्गलपिण्डानां कर्मस्वकर्तृत्वाभावमवधारयति कम्मत्तणपाओग्गा खंधा जीवस्स परिणइं पप्पा । गच्छंति कम्मभावं ण हि ते जीवेण परिणमिदा ॥१६॥ कर्मत्वप्रायोग्याः स्कन्धा जीवस्य परिणति प्राप्य । गच्छन्ति कर्मभावं न हि ते जीबेन परिणमिताः ॥१६॥ यतो हि तुल्यक्षेत्रावगाढजीवपरिणाममात्रं बहिरङ्गसाधनमाश्रित्य जीवं परिणमयितारमन्तरेणापि कर्मवपरिणमनशक्तियोगिनः पुद्गलस्कन्धाः स्वयमेव कर्मभावेन परिणमन्ति । ततोऽवधार्यते न पुद्गलपिण्डानां कर्मत्वकर्ता पुरुषोऽस्ति ॥१६६॥
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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