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• दूसरे अधिकार में सम्यग्दर्शन के विषयभूत छहों द्रव्यों का अथवा ज्ञान के विषयभूत ज्ञेयों का ११३ गाथाओं द्वारा कथन है। इनमें से मात्र १०८ गाथाओं पर श्री अमृतचन्द्र आचार्य की टीका है । गाथा १३ से १२६ तक ज्ञेयों का सामान्य कथन है। गाथा ६३ में बतलाया है कि द्रव्य गुण पर्यायात्मक अर्थ है । जो पर्यायविमूढ है, वह मिथ्यादृष्टि है। जो निश्चयाभासी है, आत्मा को सर्वथा शुद्धबुद्ध मानकर अशुद्ध अवस्था को स्वीकार नहीं करता वह पर्यायविमूढ है, क्योंकि आत्मा मसात दशा में समुद्र अनरणा से लाल हो रहा है। जिस व्यवहाराभासी की द्रव्य पर दृष्टि नहीं है मात्र पर्याय पर दृष्टि है वह भी पर्यायविमूढ़ है। गाथा ६४-११३ द्रव्य के सत् उत्पाद-व्ययधौव्य गुण-पर्याय ये तीन लक्षण बतलाये हैं। स्वरूप अस्तित्व (अवान्तरसत्ता) और सदृश्य-अस्तित्व (महासत्ता) का कथन है। अतद्भाव और पृथक्त्व का अन्तर बतलाया है। कचित् सत् का कथंचित् असत् का उत्पाद है । गाथा ११४-११५ में द्रव्याथिकनय तथा पर्यायायिकनय के विषयों का और सप्तभंगी का कथन है । गाथा ११७-११८ में बतलाया है कि नाम कर्म जीव के स्वभाव का पराभव करके जीव को मनुष्यादि पर्याय रूप करता है। गाथा १२२ में बतलाया है कि जीव और पुगल किस नय से किन भावों के कर्ता हैं । गाथा १२३-१२६ में ज्ञानचेतना, कर्मचेतना कर्मफलचेतना का कथन है।
गाथा १२७ से १४४ तक द्रव्य-विशेष का कथन है। चेतन-अचेतन, क्रियाशील-निःक्रिय, मूर्त अमूर्त, प्रदेशत्व-अप्रदेशत्व की अपेक्षा द्रव्यों का कथन है।
गाथा १४५.-२०० तक जीवद्रव्य का विशेष कथन है। जीव के द्रव्यप्राणों, ज्ञानोपयोग दर्शनोपयोग, शुभ-अशुभ शुद्धोपयोग का कथन है। पुद्गल परमाणुओं का परस्पर में बंध, जीव के साथ कर्म व नोकर्म का बंध तथा बंध से छूटने का कथन है ।
तीसरा मूल अधिकार चरणानुयोगचूलिका है। इसमें ६६ गाथा है किन्तु श्री अमृतचन्द्र आचार्य ने मात्र ७५ गाथाओं पर टीका रची है। संयम ग्रहण करने के योग्य कौन है ? ये ११ गाथा हैं और चारित्राधिकार का यह एक मुख्य विषय है किन्तु श्री अमृतचन्द्र आचार्य ने इन गाथाओं की टोका क्यों नहीं लिखी यह एक विचारणीय विषय है। श्री कुन्दकुन्द आचार्य के काल में ही श्वेताम्बर और दिगम्बर ऐसे दो सम्प्रदाय बन गये थे । दिगम्बरेतर सम्प्रदाय में स्त्रीमुक्ति तथा 'शूदमुक्ति का कथन है जिसका खंडन श्री कुंदकंद आचार्य ने इन ११ गाथाओं में किया है।
__इस तीसरे अधिकार की गाथा २०१ में यह बतलाया है यदि जीव संसार दुःखों से छूटना चाहता है तो उसको मुनिधर्म अवश्य अंगीकार करना चाहिये, क्योंकि मुनिधर्म के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय संसार दुःखों से छुटने का नहीं है। उसके पश्चात् यतिधर्म का कथन है । गाथा २११ में अंतरंग-बहिरंगछेद का कथन है, गाथा - १५ सूक्ष्म पर द्रव्य का सम्बन्ध भी छेद का कारण है
और ऐसा बतलाया गया है। बहिरंगपरिग्रह के सद्भाव में अंतरंग-परिग्रह-त्याग का अभाव होता है (गाथा २२०) गाथा २२४ । १-६ में स्त्रीमुक्ति का निषेध है। गाथा २२४ । १०-११ में दीक्षा के योग्य पुरुष का और माथा २३० ब २३१ में उत्सर्ग ब अपवाद की मैत्री का कथन है।
गाथा २३२-२३५ में बतलाया है कि आगमाभ्यास के बिना मोक्षमार्य नहीं है । सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र की युगपत्ता के साथ वीतरागनिर्विकल्पसमाधिरूप आत्मज्ञान भी मोक्षमार्ग के लिये