SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पवयणसारो ] [ ३५ जाने से निनिय शिकसित शामाादितवान् याद होता हुआ ज्ञेयता को प्राप्त (पदार्थों) के अन्त को पा लेता है (अर्थात् सब पदार्थों को जान लेता है-सर्वज्ञ हो जाता है)। सार-यहां यह कहा जा रहा है कि आत्मा का वास्तव में ज्ञान स्वभाव है, और ज्ञान ज्ञेय के बराबर है । इस कारण से समस्त ज्ञेयों के भीतर प्रवेश को प्राप्त ज्ञान जिसका स्वभाव है ऐसे आत्मा को आत्मा शुद्धोपयोग के प्रसाद से ही प्राप्त करता है । भावार्थ---सातवें गुणस्थान में शद्धोपयोग प्रारम्भ होता है। फिर प्रत्येक पद में (गुणस्थान में) उसको शुद्धता की शक्ति बढ़ती चली जाती है, जिससे दसवें गुणस्थान में मोहनीय कर्म प्रायः नष्ट हो जाता है । जन वह शुद्धोपयोग पूर्ण क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थान में पहुँचता है तो उस शुद्धता में शेष तीन घातिया कर्मों को नष्ट करने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है । घातिया कर्मों के नष्ट होने पर स्वभाव स्वयं प्रगट हो जाता है और आत्मा सर्वज्ञ बनकर सब ज्ञेयों को जान लेता है। तात्पर्यवृत्ति अथ शुद्धोपयोगलाभानन्तरं केवलज्ञानं भवतीति कथयति । अयबा द्वितीयपातिका--श्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेवाः सम्बोधनं कुर्वन्ति, हे शिवकुमारमहाराज ! कोप्यासन्नभव्यः संक्षेपरूचिः पीठिकाव्याख्यानमेव श्रुत्वात्मकार्य करोति, अन्यः कोपि पुनविस्तररुचि: शुद्धोपयोगेन संजातसर्वज्ञस्य ज्ञानसुखादिक विचार्य पश्चादात्मकार्य करोतीति ध्यास्पातिः उवओगविसुखो जो उपयोगेन शुद्धोपयोगेन परिणामेन विशुद्धो भूत्वा वतते यः विगवावरणंतरायमोहरओ भूदो विगतावरणान्तरायमोहरजोभूतः सन् कथम् ? सयमेव निश्चयेन स्वयमेव आवास पूर्वोक्त आत्मा जादि याति गच्छति कि ? पारं पारमवसानम् । केषाम् ? वभूदाणं जयभूतपदार्थानाम् सर्व जानातीत्यर्थः । अतो विस्तर:-यो निमोहशुद्धात्मसंवित्तिलक्षणेन शुद्धोपयागसंज्ञनागम माषया पृथक्त्ववितर्कवीचारप्रथमशुक्ल ध्यानेन पूर्व निरवशेषमोक्षपणं कृत्वा तदनन्तरं रागादिविकल्पोपाधिरहितस्वसंवित्तिलक्षणने कत्ववितर्कवीचारसंज्ञाद्वितीयशुक्लध्यानेन क्षीणकपायगुणस्थानेन्तर्मुहूर्त काल स्थित्वा तस्यैवान्त्यसमये ज्ञानदर्शनावरणवीर्यान्तरायाभिधानघातिकमंत्रयं युगपद्विनाशयति । स जगत्त्रयकाल त्रयवति समस्त वस्तुगतानन्तधर्माणां युगपत्प्रकाशक केवलज्ञानं प्राप्नोति । ततः स्थित शुद्धोपयोगात्सर्वज्ञो भवतीति । १५॥ उत्थानिका--आगे यह कहते हैं कि शुद्धोपयोग के लाभ होने के पीछे केवल ज्ञान होता है अथवा दूसरी पातनिका यह है कि श्री कुन्दकुन्दाचार्य देव संवोधन करते हैं कि हे शिवकुमार महाराज ! कोई भी निकटभव्य जीव, जिसकी सूचि संक्षेप में जानने की है, पीठिका के व्याख्यान को ही सुनकर आत्म-कार्य करने लगता है । दूसरा कोई जीव, जिसकी रुचि विस्तार से जानने की है, इस बात को विचार करके शुद्धोपयोग के द्वारा सर्वज्ञपना .
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy