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________________ ३६ ] [ पवयणसारो होता है और तब अनंतज्ञान अनंतसुख प्रगट होते हैं फिर अपने आत्मा का उद्धार करता है, इसीलिये अब विस्तार से व्याख्यान करते हैं - अन्वय सहित विशेषार्थ - ( जो उवओमविसुद्वी) जो उपयोग करके विशुद्ध है अर्थात् जो शुद्धोपयोग परिणामों में रहता हुआ शुद्ध भावधारी हो जाता है सो ( आदा ) आत्मा ( सयमेव ) स्वयं ही अपने आप ही अपने पुरुषार्थ से ( विगवावरणांत राय-मोह-रओमूदो) आवरण, अंतराय और मोह की रज से छूटकर अर्थात् ज्ञानावरण दर्शनावरण, अंतराय तथा मोहनीय इन चार घातिया कर्मों के बंधनों से बिल्कुल अलग होकर (नेयभूदाणं) ज्ञेयपदार्थो के (पार) अंत को (जादि) प्राप्त होता है अर्थात् सर्व पदार्थों का ज्ञाता हो जाता है । इसका विस्तार यह है कि जो कोई मोह रहित शुद्ध आत्मा के अनुभव-लक्षणमय शुद्धोपयोग से अथवा आगम भाषा के द्वारा पृथक्त्ववितर्कयोचार नाम के पहले शुक्लध्यान से पहले सर्वमोह को नाश करके फिर पीछे रागादि विकल्पों की उपाधि से शून्य स्वसंवेदन लक्षणमय एकत्ववितर्क अवीचार नामक दूसरे शुक्लध्यान के द्वारा क्षीणकषाय गुणस्थान में अंतर्मुहूर्त ठहरकर उसी गुणस्थान के अंत समय में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अंतराय इन तीन घातिया कर्मों को एक साथ नाश करता है, वह तीन जगत, तीन काल की समस्त वस्तुओं के भीतर रहे हुए अनन्त स्वभावों को एक साथ प्रकाशने वाले केवलज्ञान को प्राप्त कर लेता है । इससे यह सिद्ध हुआ कि शुद्धोपयोग से सर्वज्ञ हो जाता है । अथ शुद्धोपयोगजन्यस्य शुद्धात्मस्वभावलाभस्य कारकान्तरनिरपेक्षतयाऽत्यन्तमात्मायसत्वं द्योतयति तह सो लद्धसहा वो सव्वण्हू 'सव्वलोगपदिमहिदो । भूदो सयमेवादा हववि सयंभु त्ति निट्ठिी ||१६|| तथा स लब्धस्वभावः सर्वज्ञः सर्वलोकपतिमहितः । भूतः स्वयमेवात्मा भवति स्वयम्भूरिति निर्दिष्टः ||१६|| अयं खल्वात्मा शुद्धोपयोग भावनानुभाव प्रत्यस्तमितसमस्तघातिकर्मतया समुपलब्धशुद्धानन्तशक्तिचित्स्वभावः, शुद्धानन्तशक्तिज्ञायकस्वभावेन स्वतन्त्रत्वाद्गृहीतक स्वाधिकारः, शुद्धानन्तशक्तिज्ञानविपरिणमनस्वभावेन प्राप्यत्वात् कर्मत्वं कलयन् शुद्धानन्त शक्तिज्ञानविपरिणमनस्वभावेन साधकतमत्वात् करणत्वमनुविभ्राणः, शुद्धानन्तशक्तिज्ञानविपरिणमनस्वभावेन कर्मणा समाश्रियमाणत्वात् संप्रदानत्वं वधानः, शुद्धानन्तशक्तिज्ञानविपरिणमनसमये पूर्वप्रवृत्तविकलज्ञानस्वभावापगमेऽपि सहजज्ञानस्वभावेन ध्रुवत्वालम्बनादपादानत्वमुपाददानः, (१) सलीम ( ज० ० ) ।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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