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________________ पवयणसारो । पूर्व तक शरीर को स्थिति के कारण, सात धातुओं से रहित परमौदारिक शरीर रूप नोकर्म के आहार के योग्य आहारक वर्गणाओं के पुद्गल लाभान्तराय कर्म के पूर्ण क्षय हो जाने से केवली भगवान् के शरीर में योग-शक्ति के आकर्षण से प्रति समय आते हैं। यही केवली आहार है। यह बात नवकेवललब्धि व्याख्या के अवसर पर कही गई है इसलिये यह जाना जाता है कि केवली अरहंतों के नोकर्म के आहार की अपेक्षा से ही आहारकपना है । यदि आप कहो कि आहारकपना नोकर्म के आहार को अपेक्षा कहना तथा कवलाहार की अपेक्षा न कहना यह आपको कल्पना है यवि सिद्धान्त में है तो कैसे मालूम पड़े तो इसका समाधान यह है कि श्री उमास्वामी महाराज कृत तत्त्वार्यसूत्र के दूसरे अध्याय में यह वाक्य है। "एक द्वौ त्रीन्यानाहारकः', ॥३०॥ इस सूत्र का भावरूप अर्थ कहा जाता है। ए पीर को छोड़कन सरे भव में जाने के काल में विग्रहगति के भीतर स्थूलशरीर का अभाव होते हुए नवीन स्थूलशरीर धारण करने के लिये तीन शरीर और छः पर्याप्ति के योग्य पुद्गल पिड का ग्रहण होना नो-कर्म-आहार कहा जाता है। ऐसा नोकर्म आहार विग्रहगति के भीतर कमों का ग्रहण या कार्माणवर्गणा का आहार होते हुए भी एक, दो या तीन समय तक नहीं होता है । इसलिये ऐसा जाना जाता है कि आगम में नोकर्म आहार की अपेक्षा से आहारकपना कहा है। यदि कहोगे कि कबलाहार की अपेक्षा से है तो प्रासरूप भोजन के काल को छोड़कर सदा ही अनाहारकपना रहेगा। तब तीन समय अनाहारक हैं, ऐसा नियम न रहेगा । यदि कहोगे कि वर्तमान के मनुष्यों की तरह केवलियों के कालाहार है क्योंकि केवली भी मनुष्य हैं, सो कहता भी ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानोगे तो वर्तमान के मनुष्यों की तरह पूर्वकाल के पुरुषों के सर्वज्ञपना न रहेगा तथा राम, रावण आदि को विशेष सामर्थ्य थी सो यह बात नहीं बन सकेगी, और समझना चाहिये कि अल्पज्ञानी छमस्थ प्रमत्तसंयतनामा छठे गुणस्थानधारी साधु भो जिनके सात धातु रहित परम औदारिक शरीर नहीं है इस वचन से कि "छट्ठोत्ति पढम सण्णा" षष्ठ गुणस्थान तक प्रथम आहार संज्ञा है अर्थात् भोजन करने की चाह छठे गुणस्थान तक ही है यद्यपि ये आहार को लेते हैं तथापि ज्ञान और संयम तथा ध्यान की सिद्धि के लिये लेते हैं, बेह के मोह के लिये नहीं लेते हैं। कहा भी है कायस्थित्यर्थमाहार: कायो ज्ञामार्थमिष्यते, ज्ञानं कर्मविनाशाय तन्नाशे परमं सुखं ॥३॥ ण बलाउ साहणटुंग सरोरस्य य चपळे तेमळे । णाणळं संजमझें शाणळे चेव मुंजंति ।।४।।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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