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________________ ३४४ ] [ पवयणसारो ___टीका--काल, द्रव्यतः प्रदेशमात्र होने से, अप्रदेशी ही है। उसके (काल के), पुद्गल की भांति, पर्यायतः भी अनेक प्रदेशित्व नहीं है, क्योंकि उसके परस्पर अन्तर के बिना प्रस्तार रूप (फैले हुये) विस्तृत प्रदेशमात्र असंख्यात कालद्रव्यत्व होने पर भी, परस्पर संपर्क न होने से एक एक आकाश प्रदेश को व्याप्त करके रहने वाले कालद्रव्य की वृत्ति तभी होती है (अर्थात् कालाणुको परिणति तभी निमित्तभूत होती है) जब प्रदेश मात्र (एक प्रदेशो) परमाणु उस (कालाणु) से व्याप्त एक आकाश प्रदेश को मन्दगति से उल्लंघन करता हो। ____ भावार्थ.....लोकाःसा है अयप्रदेश हैं। एक-एक प्रदेश में एक-एक कालाणु विद्यमान है। वे कालाणु स्निग्ध-सक्षगुण के अभाव के कारण रत्नों की राशि की भांति पृथक्-पृथक् ही रहते हैं, पुद्गल परमाणुओं की भांति परस्पर मिलते नहीं हैं । जब पुद्गल परमाणु आकाश के एक प्रदेश को मन्दगति से उल्लंघन करता है (अर्थात् एक प्रदेश से दूसरे अनन्तर-निकटतम प्रदेश पर मन्दगति से जाता है) तब उस (उल्लंधित किये जाने वाले) प्रदेश में रहने वाला कालाणु उसमें निमित्तभूत रूप से रहता है । इस प्रकार प्रत्येक कालाणु पुद्गल परमाणु के एक प्रदेश तक के गमन पर्यंत ही सहकारी रूप से रहता है, अधिक नहीं । इससे स्पष्ट होता है कि काल द्रव्य पर्यायतः भी अनेक प्रदेशी नहीं है ॥१३॥ तात्पर्यवृत्ति अथ कालद्रव्यस्य द्वितीयादिप्रदेशरहितत्वेनाप्रदेशत्वं व्यवस्थापयति समओ समयपर्यायस्योपादानकारणत्वात्समयः कालाण: बु पुनः । स च कथंभूतः ? अप्पदेसो अप्रदेशो द्वितीयादिप्रदेशरहितो भवति । स च किं करोति ? सो यदि स पूर्वोक्तकालाणुः परमाणोगंतिपरिणतेः सहकारित्वेन वर्तते । कस्य सम्बन्धी योऽसौ परमाणुः ? पदेसमेत्तस्स दवजादस्स प्रदेशमाअपुद्गलजातिरूपपरमाणु द्रव्यस्य। किं कुर्वतः ? विवववो व्यतिपततो मन्दगत्या गच्छतः । कं प्रति ? पदेसं कालाणुब्याप्तमेकप्रदेशम् । कस्य सम्बन्धिन ? आगासवव्यस्स आकाशद्रव्यस्येति । तथाहि कालाणुरप्रदेशो भवति । कस्मात् ? द्रव्येणकप्रदेशत्वात् । अथवा यथा स्नेहाणेन पुद्गलानां परस्परबन्धो भवति तथाविधबन्धाभावात्पर्यायेणापि । अयमत्रार्थः यस्मात्पुद्गलपरमाणोरेकप्रदेशगमनपर्यन्तं सहकारित्वं करोति नचाधिक तस्मादेव ज्ञायते सोऽप्येकप्रदेश इति ।। १३८॥ उत्यानिका-आगे काल द्रव्य के दो तीन आदि प्रदेश नहीं हैं, मात्र एक प्रदेश है इसी से वह अप्रदेशी है, ऐसी व्यवस्था करते हैं
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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