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________________ पवयणसारो } [ ६ मयी भींत पर बाहुबलि भरत आदि के भूतकाल के रूप तथा श्रेणिक तीर्थंकर आवि भावी काल के रूप वर्तमान के समान प्रत्यक्ष रूप से दिखाई पड़ते हैं तंसे मींत के चित्र समान केवलज्ञान में भूत और भावी अवस्थाएँ भी एक साथ प्रत्यक्ष रूप से दिखाई पड़ती हैं इसमें कोई विरोध नहीं है। तथा जैसे यह केवली भगवान् परद्रव्यों को पर्यायों को उनके ज्ञानाकार मात्र से जानते हैं, तन्मय होकर नहीं जानते हैं, परन्तु निश्चय करके केवलज्ञान आदि गुणों का आधार भूत अपनी ही सिद्ध पर्याय को ही स्वसंवेवन या स्वानुभव रूप से तन्मयी हो जानते हैं, तंसे निकट भव्य जीव को भी उचित है कि अन्य द्रों का ज्ञान रखते हुए भी अपने शुद्ध आत्म-द्रव्य की सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान तथा चारित्र रूप निश्चयरत्नत्रयमयी अवस्था को ही सर्व तरह से तन्मय होकर जाने तथा अनुभव करे, यह तात्पर्य है । भावार्थ- श्री सर्वजदेव भूतकाल के निश्चित प्रमाण को और सर्व पर्यायों को जानते हैं। इससे भूतकाल का या भूत पर्यायों को आदि नहीं हो जाती, क्योंकि मूतकाल के निश्चित प्रमाण के मात्र ज्ञान हो जाने से भूतकाल का आदि अभवा भूत पर्यायों का आबि नहीं हो जाता । यदि प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय होने से आदि मान लिया जाये तो असत् द्रव्य के उत्पाद का अथवा ईश्वर-कर्तृत्व का प्रसंग आ जायगा । इसी प्रकार भविष्य पर्याय केवली द्वारा ज्ञात हो जाने से सब पर्यायें सर्वथा नियत या क्रमबद्ध नहीं हो जातीं क्योंकि सर्व पर्यायों को सर्वथा नियत मान लेने पर मोक्षमार्ग के उपदेश के अभाव का प्रसंग आ जायगा । दृष्टिवाद अङ्ग में सर्वज्ञ के द्वारा नियतिवाद एकान्त मिथ्यात्य कहा गया है, उससे विरोध आ जायेगा। नियतिवाद एकान्त मिथ्यात्व का स्वरूप श्री पंचसंग्रह में निम्न प्रकार कहा है यथा यथा यत्र यतोऽस्ति येन यत्, तदा तथा तत्र ततोऽस्ति तेन तत् । स्फुटं नियत्येह नियंत्रयमाणं, परो न शक्तः किमपीह कर्तुं म् ॥ ३१२ ॥ अर्थ - जिसका जहाँ जब जिस प्रकार जिससे जिसके द्वारा जो तब तहाँ तिसका तिस प्रकार उससे उसके द्वारा यह होना नियत है । नहीं कर सकता । ऐसा मानना एकान्त नियतिवाद मिध्यात्व है । जत्तु जवा जेण जहा अस्स य नियमेण होषि तत्त तदा । तेथ तहा तस्स हवे इदिवादो पियदिवायो यु ॥ ६८२ ॥ [ गो० क० अर्थ — जो जिस समय जिससे जैसे जिसके नियम से होता है वह उस समय उससे से ही उसके ही होता है। ऐसा सब वस्तु मानना नियतिवाद एकान्त मिध्यात्व है । होना होता है अन्य कोई कुछ
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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