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________________ ६४ ] { पवयणसारो जो प्रमाण है वही आत्मा ज्ञान का प्रमाण है और वह ज्ञान आत्मा का अपना स्वरूप है । ऐसा अपना निज स्वभाव देह के भीतर प्राप्त आत्मा को नहीं जोड़ता हुआ भी लोक अलोक को जानता है । इस कारण से व्यवहारनय से भगवान् को सर्वगत कहा जाता है । और क्योंकि जैसे नीले, पीले आदि बाहरी पदार्थ दर्पण में झलकते हैं ऐसे ही बाह्य पदार्थ ज्ञानाकार से ज्ञान में प्रतिबिम्बित होते हैं इसलिये व्यवहार से ज्ञान आकार भी पदार्थ कहे जाते हैं । इसलिये वे पदार्थ ज्ञान में तिष्ठते हैं ऐसा कहने में दोष नहीं है, यह अभिप्राय है ॥२६॥ अथात्मज्ञानयोरेकत्वान्यत्वं चिन्तयति 1 गाणं अप्पत्ति मदं वट्टदि जागं विणा ण अपागं । तम्हा णाणं अप्पा अप्पा णाणं वा अण्णं वा ॥ २७॥ ज्ञानमात्मेति मतं वर्तते ज्ञानं विना नात्मानम् । तस्मात् ज्ञानमात्मा आत्मा ज्ञानं वा अन्यद्वा ॥ २७ ॥ 'शेषसमस्तचेतन वस्तुसमवाय संबन्ध निरुत्सुकतयाऽनाद्यनन्तस्वभावसिद्धसम वायसंबन्ध मेकमात्मानमाभिमुख्येनावलम्ध्य प्रवृत्तत्वात् तं विना आत्मानं ज्ञानं न धारयति, ततो ज्ञानमात्मैव स्यात् । आत्मा त्वनन्तधर्माधिष्ठानत्थात् ज्ञानधर्मद्वारेण ज्ञानमन्यधर्मद्वारेणाव्यवपि स्यात् । किं चानेकान्तोऽत्र बलवान् । एकान्तेन ज्ञानमात्मेति ज्ञानस्याभावोऽचेतनत्वमात्मनो विशेषगुणाभावादभावो वा स्यात् । सर्वथात्मा ज्ञानमिति निराश्रयत्यात् ज्ञानस्याभाव, आत्मनः शेषपर्यायाभावस्तवविनाभावितस्तस्याव्यभावः स्यात् ||२७|| यतः भूमिका- - अब आत्मा और ज्ञान के एकत्व और अन्यत्व का विचार करते हैं ( अर्थात् आत्मा और ज्ञान एक पदार्थ है या दो भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं इसका विचार करते हैं ।) अन्वयार्थ - [ज्ञानं आत्मा ] ज्ञान आत्मा हैं [ इति मतं ] ऐसा जिनेन्द्र देव द्वारा माना गया है ( क्योंकि ) [ आत्मानं विना ] आत्मा को छोड़कर (अन्य किसी भी जड़ द्रव्य में ) [ ज्ञानं न वर्तते ] ज्ञान नहीं पाया जाता है । [तस्मात् ] उस कारण से [ ज्ञानं आत्मा ] ज्ञान आत्मा है । [आत्मा ] आत्मा [ ज्ञानं ] ( ज्ञान गुण की अपेक्षा से ) ज्ञान है [ वा ] अथवा (सुख, वीर्य, आदि अन्य गुणों की अपेक्षा से ) [ अन्यत् ] अन्य अन्य ( भी ) है । टीका - शेष समस्त अचेतन वस्तुओं के साथ समवाय सम्बन्ध न होने से तथा जिसके साथ अनादि अनन्त स्वभाव-सिद्ध समवाय सम्मन्ध है, ऐसे एक आत्मा को सर्वथा १. च (ज० बु० ) । २. शेषसमस्तचेतनाचेतन इति पाठान्तरम् ।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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