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पवयणसारो । अवलम्बन करके प्रवर्तमान होने से चंकि उस आत्मा के बिना ज्ञान अपना अस्तित्व नहीं रख सकता है, इसलिये ज्ञान आत्मा हो है और आत्मा तो अनन्त धर्मों का अधिष्ठान (आधार-स्थान) होने से ज्ञान धर्म के द्वार (अपेक्षा) से ज्ञान है और अन्य धर्म के द्वार (अपेक्षा) से अन्य भी है।
और फिर (उसके अतिरिक्त यह विशेष समझना कि) यहाँ अनेकान्त बलवान है। एकान्त से ज्ञान आत्मा है यदि यह माना जाय तो, (१) (ज्ञान गुण आस्म-द्रव्य हो जाने से) ज्ञान का अभाव हो जायेगा, और (२) (ज्ञान का अभाव हो जाने से) आत्मा के अचेतनपना आ जायेगा, अथवा (३) आत्मा के विशेष गुण का अभाव हो जाने से आत्मा का (ही) अभाव हो जायेगा ।
सर्वथा (एकान्त से) आत्मा ज्ञान है यदि यह माना जाय तो, (आत्म-द्रव्य एक ज्ञान गुण रूप ही हो जायेगा। इसलिये, ज्ञान का कोई आधारभूत द्रव्य नहीं रहेगा। अतः (निराश्रयता के कारण से) ज्ञान का (ही) अमाव हो जायेगा, अथवा (आत्म व्रध्य के एक ज्ञान गुण रूप हो जाने से) आत्मा को शेष पर्यायों का (सुख वीर्य आदि गुणों का) अभाव हो जायेगा, और (उनके साथ ही) उन गुणों से अधिनाभावी सम्बन्ध वाले उस आत्मा का भी अभाव हो जायेगा (क्योंकि सुख, बीर्य इत्यादि गुण न हों तो आत्मा भी नहीं हो सकता।)
तात्पर्गवत्ति अथ ज्ञानमात्मा भवति, आत्मा तु मानं सुखादिकं वा भवतीति प्रतिपादयति,
णाणं अपत्ति ज्ञानमात्मा भवतीति मवं सम्मतं । कस्मात् ? पट्टा गाणं विणा ण अप्पाणं ज्ञान कृत विनात्मानं जीवमन्यत्र घटपटादो न वर्तते। तम्हा जाणं अप्पा तस्मात् ज्ञायते कथंचिज्ज्ञानमात्मैव स्यात् । इति गाथापादत्रयेण ज्ञानस्य कथंचिदात्मत्वं स्थापितम् । अप्पा णाण च अण्ण वा आत्मा तु शानधर्मद्वारेण ज्ञानं भवति, सुखवीर्यादिधर्मद्वारेणान्यद्वा, नियमो नास्तीति । तद्यथायदि पुनरेकान्तेन ज्ञानमात्मेति भण्यते तदा ज्ञानगुणमात्र एवात्मा प्राप्तः सुखादिधर्माणामवकाशो नास्ति । तथा सुखवीर्यादिधर्मसमूहाभावादात्माऽभावः, आत्मन आधारभूतस्याभावादाधेयभूतस्य सानगुणस्याप्यभावः, इत्येकान्ते सति द्वयोरप्यभावः । तस्मात्कथंचिज्ज्ञानमात्मा न सर्वधेति । अयमत्राभिप्रायः-आत्मा व्यापको ज्ञानं व्याप्यं सतो ज्ञानमात्मा स्यात् । आत्मा तु ज्ञानमन्यद्वा भवतीति । तथाचोक्त'-"धापकं तदतन्निष्ठं व्याप्यं तनिष्ठमेव च" ॥२७॥
इत्यात्मज्ञानयोरेकत्वं, ज्ञानस्य व्यवहारेण सर्वगतत्वमित्यादिकथनरूपेण द्वितीयस्थले गाथा. पञ्चकं गतम् ।
उस्थानिका—आगे कहते हैं कि ज्ञान आत्मा का स्वभाव है तथापि आत्मा ज्ञान स्वभाव भी है तथा सुख आदि स्वभाव रूप भी है—केवल एक ज्ञानगुण का ही धारी नहीं है।