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________________ पवयणसारो ] [ ५०६ अन्वयार्थं --- [ जीवः ] जीत्र [म्रियतां वा जीवतु वा ] मरे या जिये, [ अयताचारस्य ] अयत्नाचार वाले के [हिंसा ] हिंसा [ निश्चिता ] निश्चित है, [ प्रयतस्य समितस्य ] यत्नाचारी के समितिवान् के [हिंसामात्रेण ] हिंसामात्र से [ बन्धः ] बंध [ नास्ति ] नहीं है । टीका - अशुद्धोपयोग अंतरंग छेद है, परप्राणों का विच्छेद बहिरंग छेद है । इनमें से अंतरंगछेद ही विशेष बलवान है, बहिरंगछेद नहीं, क्योंकि परप्राणों के विच्छेद का सद्भाव हो या असद्भाव, जो अशुद्धोपयोग के बिना नहीं होता ऐसे अयत्नाचार आचरण से प्रसिद्ध होने वाला अशुद्धोपयोग का सद्भाव जिसके पाया जाता है उसके हिंसा के सद्भाव की प्रसिद्धि सुनिश्चित है और इस प्रकार जो अशुद्धोपयोग के बिना होता है ऐसे यत्नाचार से प्रसिद्ध होने वाला अशुद्धोपयोग का असद्भाव जिसके पाया जाता है, उसके परप्राणों के विच्छेद के सदभाव में भी बंध की अप्रसिद्धि है, अतः हिंसा के अभाव की प्रसिद्धि सुनिश्चित है। अंतरंग छेद ही विशेष बलवान है, बहिरंगछेब नहीं, ऐसा होने पर भी बहिरंग छेद अंतरंग छेद का आयतनमात्र है इसलिये उस बहिरंग छेद को स्वीकार तो करना ही चाहिये अर्थात् उसे मानना ही चाहिये ॥ २१७ ॥ तात्पर्यवृत्ति अथान्तरङ्गबहिरङ्गहिंसारूपेण द्विविधछेदमाख्याति - मरदु व जियदु व जीवो अयदाचारस्स णिछिदा हिंसा म्रियतां वा जीवतु वा जीवः प्रयत्नरहितस्य निश्चिता हिंसा भवति बहिरङ्गान्यजीवस्य मरणेऽमरणे वा निर्विकारस्वसंवित्तिलक्षणप्रयत्नरहितस्य निश्चयशुद्धचैतन्यप्राणव्यपरोपणरूपा निश्चयहिंसा भवति । पयदस्स णत्थि बंधो बाह्याभ्यन्तरप्रयत्नपरस्य नास्ति बन्धः । केन ? हिंसामेरोण द्रव्यहिंसामात्रेण । कथंभूतस्य पुरुषस्य ? समिदस्त समितस्य शुद्धात्मस्वरूपे सम्यगितो गतः परिणतः समितस्तस्य समितस्य । व्यवहारेणेर्यादि पंचसमितियुक्तस्य च । अयमत्रार्थः -- स्वस्थभावनारूपनिश्चयप्राणस्य विनाशकारणभूता रागादिपरिणतिनिश्चयहसा हिंसा भव्यते रागाद्युत्पत्तेर्बहिरंगनिमित्तभूतः परजीवघातो व्यवहार हिंसेति द्विधा हिंसा ज्ञातव्या । किन्तु विशेष: बहिरंगहिंसा भवतु मा भवतु स्वस्थभावनारूप निश्चयप्राणघाते सति निश्चयहिंसा नियमेन भवतीति । ततः कारणात्सव मुख्येति ॥ २१७ ॥ उत्थानिका- आगे हिंसा के दो भेद हैं अन्तरङ्ग हिंसा और बहिरङ्गहिंसा । इसलिये छेद या भङ्ग भी दो प्रकार के हैं ऐसा व्याख्यान करते हैं--- अन्वय सहित विशेषार्थ - ( जीवो मरदु व जिददु) जीव मरो या जीता रहो रहित है उसके ( णिच्छिा हिंसा ) निश्चय जो प्रयत्नधान है उसके ( हिंसामेतेन) द्रव्य प्राणों की हिंसामात्र से (बन्धो णत्थि ) बन्ध नहीं होता है। बाह्य में दूसरे जीव का मरण ( अयदाचारस्स) जो यत्न पूर्वक आचरण से हिंसा है (समिस) समितियों में ( पयदस्स)
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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