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________________ ५१० ] | पवयणसारो हो या मरण न हो जब कोई निविकार स्वसंवेदन रूप प्रयत्न से रहित है तब उसके निश्चय शुद्धचैतन्य प्राण का घात होने से निश्चर्याहिसा होती है। जो कोई भले प्रकार अपने शुद्धात्मस्वभाव में लीन है, अर्थात् निश्चयसमिति को पाल रहा है तथा व्यवहार में ईर्ष्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण, प्रतिष्ठापना इन पांच समितियों में सावधान है, अंतरंग बहिरंग प्रयत्नवान है, प्रमादी नहीं है उसके बध नहीं होता है। यहाँ यह है कि अपने आत्मस्वभावरूप निश्चयप्राण का विनाश करने वाली रामावि परिणति निश्चयहिंसा कही जाती है। रागादिक उत्पन्न करने के लिये बाहरी निमित्तरूप जो परजीव का घात है सो व्यवहार हिंसा है, ऐसे दो प्रकार हिंसा जाननी चाहिये । किन्तु विशेष यह हैं कि बाहरी हिंसा हो, वा न हो जब आत्मस्वभावरूप निश्चयप्राण का घात होगा तब निश्चर्याहंसा ही मुख्य है ।। २१७ ॥ अथ तमेवार्थं दृष्टान्तदान्ताभ्यां दृढ़यति उच्चालियहि पाए इरियासमिदस्त निगग्मत्थाए । आबाधेज्ज कुलिंग मरिज्मं तं जोगमासेज्ज ।।२१७-१॥ ण हि तस्स तणिमित्ते बंधो सुमो य देसिदो समये । मुच्छापरिग्गहोच्चिय अज्झप्पपमाणदो दिट्ठो ॥ २१७ ।। जुम्मं ॥ उच्चा लियम्हि पाए उत्क्षिप्ते चालिते सति पादे । कस्य ? इरियासमिदस्स ईर्यासमितितपोधनस्य । ta ? णिग्गमत्याए विवक्षितस्थानान्निर्गमस्थाने आबाधज्ज आवाध्येन पीडय ेल । स कः ? कुलिंगं सूक्ष्मजन्तुः न केवलमात्राध्येत मरिज्जं म्रियतां वा किं कृत्वा । तं जोगमा सेज्जतं पूर्वोक्तं पादयोगं पादसंघट्टनमाश्रित्य प्राप्येति । ण हि तस्य तणिमित्तो बंधो सुमो य देसिदो समये न हि तस्य तन्निमित्तो बन्धः सूक्ष्मोऽपि देशितः समये तस्य तपोधनस्य तन्निमित्तं सूक्ष्मजन्तुघातनिमित्तो बन्धः सूक्ष्मोऽपि स्तोकोऽपि नैव दृष्टः समये परमागमे । दृष्टान्तमाह- मुच्छा परिग्गहोच्चिय मूर्च्छापरिग्रहाचैव अज्झप्पपमरणवो बिठो अध्यात्मं प्रमाणतो दृष्टमिति । अयमत्रार्थः-- "मुर्च्छा परिग्रहः" इति सूत्रे यथाध्यात्मानुसारेण मूर्च्छारूपरागादिपरिणामानुसारेण परिग्रहो भवति न च बहिरंगपरिग्रहानुसारेण तथात्र सूक्ष्मजन्तुषापि यावतांशेन स्वस्थ भावचलनरूपा रागादिपरिणतिलक्षणभावहिसा तावतशित बन्धो भवति, न च पादसंघट्टनमात्रेण तस्य तपोधनस्य रागादिपरिणतिलक्षणभावहिंसा नास्ति । ततः कारणादबन्धोऽपि नास्तीति ॥२१७ १-२॥ उत्थानिका- आगे इसी हो अर्थ को दृष्टांत दान्ति से दृढ़ करते हैं । अन्त्रय सहित विशेषार्थ - ( इरियासमिदस्स ) ईर्ष्या समिति से चलने वाले मुनि के मित्थाए ( किसी ) स्थान से जाते हुए ( उच्चा लियहि पाए ) अपने पग को उठाते हुए ( तं जोगमा सेज्ज) उस पग के संघट्टन के निमित्त से ( कुलिंगं ) कोई छोटा जंतु ( आबाधेज्ज) बाधा को पावे ( मरिज्ज) वा मर जाये ( तस्स ) उस साधु के ( तणिमित्तो सुमो य बंधो ) इस क्रिया के निमित्त से जरा सी भी कर्मबन्ध ( समये) आगम में ( जहि देसिदो ) नहीं कहा
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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