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________________ पवयणसारो ] [ ५११ गया है। जैसे (मुच्छापरिगहोच्चिय) मूळ को परिग्रह कहते हैं सो (अज्झप्पपमाणदो दिट्ठी) अंतरंगभाव के अनुसार मूळ देखी गई है। मुर्छारूप रागादि परिणामों के अनुसार परिग्रह होता है बाहरी परिग्रह के अनुसार परिग्रह नहीं होता है तैसे यहां सूक्ष्म जन्तु के घात होने पर जितने अंश में अपने स्वभाव से चलनरूप रागादि परिणति रूप भावहिंसा है उतने ही अंशमें बन्ध होगा, केवल पा के संघटन से मरते हुए जीव के उस तपोधन के रागादि परिणतिरूप भावहिंसा नहीं होती है, इसलिये बंध भी नहीं होता है ।।२१७-२॥ अथ सर्वथान्तरङ्गच्छेवः प्रतिषेध्य इत्युपदिशति-- . अयदाचारो समणो छस्सु वि कायेसु वधकरो त्ति मदो। चरदि जदं जदि णिच्चं कमलं व जले णिरुवलेवो ॥२१॥ अयताचारः श्रमणः षट्स्वपि कायेषु वधकर इति मतः । ___ चरित यतं यदि नित्यं कमलमित्र जले निरूपलेपः ॥२१८॥ यतस्तदविनाभाविना अप्रत्यताचारत्वेन प्रसिद्धचदशुद्धोपयोगसद्भावः षट्कायप्राणव्यपरोपप्रत्ययबन्धप्रसिद्धया हिंसक एव स्यात् । यतश्च तद्विनाभाविना प्रयताचारत्वेन प्रसिद्धचदशुद्धोपयोगासद्धावः परप्रत्ययबन्धलेशस्याप्यभायाज्जलदुर्ललित कमलमिव निरुपलेपत्वप्रसिद्धरहिंसक एव स्यात् । ततस्तैस्तैः सर्वैःप्रकाररशुद्धोपयोगरूपोऽन्तरङ्गच्छदः प्रतिषेध्यो पर्यस्तदायतनमात्रभूतः परप्राणव्यपरोपरूपो बहिरङ्गच्छे दो दूरादेव प्रतिषिद्धः स्यात् ।।२१।। भूमिका-अब, सर्वथा अन्तरंग छेद निषेध्य-त्याज्य है, ऐसा उपदेश करते हैं-- अन्वयार्थ -[अयताचार: श्रमणः] अयत्नाचार वाला श्रमण [पट्स अपि कायेषु | छहों काय [वधकरः] वध करने वाला [इति मतः] माना गया है, [यदि] यदि [नित्य] सदा [यतं चरति] यत्नरूप से आचरण करे तो [जले कमलम् इव] जल में कमल की तरह [निरुपलेपः] निलेप कहा गया है। टीका–ो अशुद्धोपयोग के बिना नहीं होता ऐसे अपनाचार के द्वारा प्रसिद्ध (ज्ञात) होने वाले अशुद्धोपयोग का सद्भाव हिंसा ही है, क्योंकि छहकाय के प्राणों के व्यवच्छ व के आश्रय से होने वाले बंध को प्रसिद्धि है। और जो अशुद्धोपयोग के बिना होता है ऐसे यत्नाचार से प्रसिद्ध होने वाला अशुद्धोपयोग का असद्भाव अहिंसा ही है, क्योंकि परके आश्रम से होने वाले लेशमात्र भी बंध का अभाव होने से निलेपत्य की प्रसिद्धि है जैसे जल में झूलता हुआ कमल । इसलिये उन सर्व प्रकार से अशुद्धोपयोग रूप अन्तरंग छ व निषेध्य है-त्यागने योग्य है, और उसका आयतनमाप्रभूत परप्राणव्यपरोपरूप बहिरंग छद अत्यन्त निषिद्ध है ।।२१।।।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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