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________________ ४२८ ] [ पवयणसारो भूमिका—अब परिणाम का द्रव्यबंध के साधकतम राग से विशिष्टत्व सविशेष प्रगट करते हैं अर्थात् यह भेद तहत प्रकट करतो है कि परिणाम हव्यबंध के उत्कृष्ट हेतु भूत राग से विशेषता वाला होता है। अन्वयार्थ-[परिणामात् बंध:] परिणाम से बंध है, [परिणामः रागद्वेषमोहयुतः] वह परिणाम राग द्वेष-मोहयुक्त है। [मोहप्रद्वेषौ अशुभौ] (उनमें से) मोह और द्वेष अशुभ हैं, [रागः] राग [शुभः वा अशुभः] शुभ अथवा अशुभ [भवति] होता है । टीका---प्रथम तो द्रव्यबध विशिष्ट परिणाम से होता है । परिणाम की विशिष्टता राग द्वेष-मोह-मयता के कारण है । वह शुभत्व और अशुभत्व के कारण द्वैत का अनुसरण करता है । (अर्थात वो प्रकार का है), उसमें से मोह-वैषमयता से अशुभत्य होता है, और रागमयता से शुभत्व तथा अशुभत्व होता है, क्योंकि राग विशुद्धि तथा संक्लेशयुक्त होने से । दो प्रकार का होता है। तात्पर्यवृत्ति अथ जीवपरिणामस्य द्रव्यबन्धसाधकं रागाद्युपाधिजनितभेदं दर्शयति परिणामादो बंधो परिणामात्सकाशाद्बन्धो भवति । स च परिणामः किविशिष्टः ? परिणामो रागदोसमोहजुदो वीतरागपरमात्मनो विलक्षणत्वेन परिणामो रागद्वेषमोहोपाधित्रयेण संयुक्तः असुहो मोहपदोसो अशुभौ मोहप्रद्वेषौ परोयाधिजनितपरिणामत्रयमध्ये मोहलद्वेषद्वयमशुभम् । सुहो व असुहो हवदि रागो शुभोशुभो वा भवति रागः । पञ्चपरमेष्ठ्यादिभक्तिरूपः शुभराग उच्यते, विषयकषायरूपश्चाशुभ इति । अयं परिणामः सर्वोऽपि सोपाधित्वान् बन्धहेतुरिति ज्ञात्वा बन्धे शुभाशुभसमस्तरागद्वेषविनाशार्थ समस्तरागाद्युपाधिरहिते सहजानन्दकलक्षणसुखामृतस्वभावे निजात्मद्रव्ये 'भावना कर्तव्येति तात्पर्यम् ॥१८॥ उत्थानिका-आगे द्रव्यबंध का साधक जो जीव का रागादि रूप औपाधिक परिणाम है उसके भेद को दिखाते हैं ___ अन्वय सहित विशेषार्थ—(परिणामादो) परिणामों से (बंधो) बंध होता है। (परिणामो) परिणाम (रागदोसमोहजुदो) रागद्वेष मोह युक्त होता है (मोहपदोसो) मोह और वेष (असुहो) अशुभ हैं । (रागो) राग (सुहो) शुभ (व असुहो) व अशुभ रूप (हवदि) होता है । वीतराग परमात्मा के परिणाम से विलक्षण परिणाम रागद्वेष मोह को उपाधि से तीन प्रकार का होता है । इनमें से मोह और द्वेष दोनों तो अशुभ ही हैं । राग शुभ तथा अशुभ के भेद से दो प्रकार का होता है। पंचपरमेष्ठी आदि की भक्ति में राग शभ (प्रशस्त) राग कहा जाता है। जबकि विषय कषायों में राग अशुभ (अप्रशस्त) राग होता है । यह
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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