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[ पवयणसारो
देकर निःश्रेयस (मोक्ष) को प्राप्त हुए । इस कारण से निर्वाण का अन्य कोई मार्ग नहीं है यह निश्चित किया जाता है । अथवा, अधिक प्रलाप से बस हो, मेरी बुद्धि व्यवस्थित ( सुनिश्चित ) हो गई है । भगवन्तों के लिये नमस्कार हो ॥२॥
तात्पर्यवृत्ति
अथ पूर्व द्रव्यगुण पर्याप्तस्वरूपं विज्ञाय पश्चात्तथाभूते स्वात्मनि स्थित्वा सर्वेप्यर्हन्तो मोक्षं गता इति स्वमनसि निश्चयं करोति
सोविय अरहंता सर्वेऽपि चान्तः तेण विहाणेण द्रव्यगुणपर्यायः पूर्व महत्परिज्ञानासश्चात्तथाभृतस्वात्मावस्थानरूपेण तेन पूर्वोक्तप्रकारेण खविवक्रम्मंसा क्षपितकर्माशा विनाशितकर्मभेदा भूत्वा किच्च तहोवदेसं अहो भव्या अयमेव निश्चय रत्नत्रयात्मकशुद्धात्मोपलम्भलक्षणो मोक्षमार्गे नान्य इत्युपदेशं कृत्वा णिव्यादा निर्वृता अक्षयानन्तसुखेन तृप्ता जाता, ते ते भगवन्तः । णमो तसि एवं मोक्षमार्गनिश्चर्य कृत्त्वा श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवास्तस्मै निजशुद्धात्मानुभूतिस्वरूप मोक्षमार्गाय तदुपदेश केभ्योऽर्हद्द्भ्यश्च तदुभयस्वरूपाभिलाषिणः सन्तो 'नमोस्तु तेभ्यः' इत्यनेन पदेन नमस्कारं कुर्वन्तीन्यभिप्राय: ॥ ८२ ॥
उत्थानिका— आगे आचार्य अपने मन में यह निश्चय करके वैसा ही कहते हैं। कि पहले द्रव्य गुण पर्यायों के द्वारा आप्त के स्वर को नाम पीछे उसी रूप अपने आत्मा में ठहर कर सर्व हो अर्हत हुए मोक्ष गए हैं-
अन्वय सहित विशेषार्थ -- ( तेण विहाणेण ) इसी विधान से जैसा पहले कहा है कि पूर्व में द्रव्य गुण, पर्यायों के द्वारा अरहंतों के स्वरूप को अपने आत्मा में ठहरकर अर्थात् पुनः पुनः आत्मध्यान करके ( खविदकम्मंसा ) कर्मों के भेदों को क्षय करके ( सन्धेविय अरहंता ) सर्व ही अरहंत हुए (तहोवरे किच्चा ) फिर वैसा ही उपदेश करके कि अहो भव्य जीवो ! यह निश्चय रत्नत्रयमयो शुद्धात्मा की प्राप्ति रूप लक्षण को धरने वाला मोक्षमार्ग है, दूसरा नहीं है, (ते णिव्यावा) वे भगवान् निर्वृत्त हो गए अर्थात् अक्षय अनंत सुख से तृप्त सिद्ध हो गए ( तेसि णमो ) उनको नमस्कार हो । श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव इस तरह मोक्षमार्ग का निश्चय करके अपने शुद्ध आत्मा के अनुभव स्वरूप मोक्षमार्ग और उसके उपदेशक अरहंतों को इन दोनों के स्वरूप को इच्छा करते हुए " नमोस्तु तेभ्य:" इस पद से नमस्कार करते हैं - वह अभिप्राय है ॥८२॥
तात्पर्यवृति
अथ रत्नत्रयाराधका एवं पुरुषा दानपूजागुणप्रशंसानमस्कारार्हा भवन्ति नान्य इति कथयति - दंसणसुद्धा पुरिसा णाणपहाणा समाचरियत्था ।
पूजासककाररिहा बाणस्स य हि ते णमो तेति ॥ ८२-१॥
दंसणसुद्धा निजशुद्धात्म रुचिरूप निश्चय सम्यक्तस्त्वसाधकेन मूढप्रयादिपविशतिमलरहितेन तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणेन दर्शनेन शुद्धा दर्शनशुद्धाः पुरिसा पुरुषा जीवाः । पुनरपि कथंभूताः ? णाण