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________________ पवयणसारो ] [ १८७ पहाणा निरुपरागरस्वसंवेदनज्ञानसाधकेन वीतरागसर्वज्ञप्रणोतपरमागमाभ्यासलक्षणज्ञाने प्रधानाः समर्थाः प्रौढज्ञानप्रधानाः । पुनश्च कथंभूता: ? समग्गवरियत्था निबिकारनिश्चलात्मानुभूतिलक्षण निश्चयचारित्रसाधनाचारादि शास्त्रकथितमुलोत्तरगुणानुष्ठानादिरूपेण चारित्रेण समग्रा: परिपूर्णा: समग्रचारित्रस्था: पूजासक्काररिहा द्रव्यभावलक्षणपुजा गुणप्रशंसा सत्कारस्तयोरही योग्यः भवन्ति । वाणस्स यहि दानस्य च हि स्फुटं ते पूर्वोक्तरत्नत्रयाधारा णमो सि नमस्तेभ्य: नमस्कारस्यापि त एवं योग्या: ।।८२-१।। एवमाप्तात्मस्वरूपविषये मूडत्वनिरासार्थ गाथासप्त केन द्वितीयज्ञानकण्ठिका गता। __उत्थानिका---आगे कहते हैं कि जो पुरुष रत्नत्रय के आराधन करने वाले हैं वे ही दान, पूजा, गुणानुवाद, प्रशंसा तथा नमस्कार के योग्य होते हैं, और कोई नहीं। ___अन्वय सहित विशेषार्थ- (दसणसुद्धा) अपने शुद्ध आत्मा की रुचि-रूप सम्यग्दर्शन को साधने वाले, तीन मूढता आदि पच्चीस दोष रहित तत्त्वार्थ का श्रद्धानरूप लक्षण के धारी सम्यग्दर्शन से जो प्राद्ध हैं णाणपहाणाजामा रहित स्तरखेटन नान के साधक बोतराग सर्वज्ञ से कहे हुए परमागम के अभ्यास रूप लक्षण के धारी ज्ञान में जो समर्थ हैं तथा (समग्गचरियथा) विकार रहित निश्चल आत्मानुभूति के लक्षण रूप निश्चयचारित्र के साधने वाले आचार आदि शास्त्र में कहे हुए मूलगुण और उत्तरगुण की क्रिया रूप बारित्र से जो पूर्ण हैं अर्थात् पूर्ण धारिय के पालने वाले (पुरिसा) जो जीव हैं वे (पूजासरकाररिहा) द्रव्य व भावरूप पूजा व गुणों की प्रशंसारूप सत्कार के योग्य हैं, (दाणस्स यहि) तथा प्रगटपने वान के योग्य हैं। (णमो तेसि) उन पूर्व में कहे हुए रत्नत्रय के धारियों को नमस्कार हो क्योंकि वे ही नमस्कार के योग्य हैं। भावार्थ-आचार्य ने इसके पहले की गाथा में सच्चे आप्त को नमस्कार करके यहां सच्चे गुरु को नमस्कार किया है। इस माथा में बता दिया है कि जो साधु निश्चय और व्यवहार रत्नत्रय के धारी हैं उन्हीं को अष्टद्रध्य से भाय सहित पूजना चाहिये, व उन्हीं की प्रशंसा करनी चाहिये । उन्हीं का पूर्ण आदर करना चाहिये तथा उन्हीं को दान देना चाहिये व उन्हीं को नमस्कार करना चाहिये । प्रयोजन यह है कि उक्च आदर्श हो हमारा हितकारी हो सकता है। उन्हीं का भाव व आचरण हम उपासकों को उन रूप वर्तन करने की योग्यता की प्राप्ति के लिये प्रेरणा करता है। निर्ग्रन्थ साधु ही मोक्षमार्ग पर चलते हुए भक्तजनों को साक्षात् मोक्ष का मार्ग दिखाने वाले होते हैं। जैन गृहस्थों का मुख्य कर्तव्य है कि ऐसे साधुओं की सेवा करें, व साधुपद धारने की चेष्टा में उत्साही रहें ॥२१॥
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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