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________________ पवयणसारो ] । ३५३ वृत्ति समय से अर्थान्तर भूत (अन्य) है, इसलिये वह (वृत्ति) समय से विशिष्ट (विशेषित) है, काल द्रव्य को वृत्ति तो स्वतः समयभूत है, इसलिये वह समयविशिष्ट नहीं है ॥१४१॥ ___ तात्पर्यवृत्ति अथ तिर्यकपचयोदर्वप्रचयौ निरूपयति एक्को का दुगे बहुगर संखातोदा तदो अगंता य एको वा द्वौ बहवः संख्यातीतास्ततोऽनन्ताश्च । वखाणं च परेसा संति हि कालद्रव्यं विहाय पञ्चद्रव्याणां सम्बन्धिन एते प्रदेशा यथासम्भवं सन्ति हि स्फुटम् । समयति कालरस कालस्य पुनः पूर्वोत्तसंध्योपेता. समयाः सन्तीति । तद्यथा-एकाकारपरमअमरसीभावपरिणतपरमानन्दकलक्षणसुखामृतभरितावस्थानां केवलज्ञानादिव्यक्तिरूपानन्तगुणाधारअताना लोकाकाशप्रमितशुद्धासंख्येयप्रदेशानां मुक्तात्मपदार्थ योऽसौ प्रचय: समूहः समुदायो राशिः स । कि भण्यले ? तिर्यकप्रचयाः तिर्यक्सामान्यमिति विस्तारसामान्यमिति अकमानेकान्त इति च सम्यते । स च प्रदेशप्रचयलक्षणरिचर्यकपचयो गथा मृतात्मनो भणितस्तथा कालं विहाय स्वकीयकीयप्रदेशसंख्यानुसारेण शेषद्रव्याणां स भवतीति तिर्यक्प्रचयो व्याख्यातः। प्रतिसमयवर्तिनां पू:पर्यायाणां मुक्ताफलमालावत्सन्तान ऊद्धर्वप्रचय इत्यूर्वसामान्यमित्यायतसामान्यमिति नमानेकान्त ति च भण्यते । स च सर्वव्याणां भवति । किन्तु पंचद्रव्याणां सम्बन्धी पूर्वापरपर्यायसन्तानरूपो सावूर्वताप्रचयस्तस्य स्वकीयस्वकीयद्रव्यमुपादानकारणम्। कालस्तु प्रतिसमयं सहकारिकारणं अगरी। यस्तु कालस्य समयसन्तानरूप ऊर्वताप्रचयस्तस्य स्वकीय स्वकीयद्रव्यम्पादानकारणम् । कालस्तु प्रतिसमयं सहकारिकारणं भवति । यस्तु कालस्य समय सन्तानरूप ऊर्ध्वता प्रचयस्तस्य काल एवोपादानकारणं सहकारिकारणं च । कस्मात् ? कालस्य भिन्नसमयाभावात्पर्याया एव समया भवन्तीत्यभिप्रायः ।।१४१|| एवं सप्तमस्थले स्वतन्त्रगाथाद्वयं गतम् । उत्थानिका-आगे तिर्यक् प्रचय और ऊर्व प्रचय का निरूपण करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(दव्याणं पदेसा) काल द्रव्य के बिना पाँच द्रव्यों के प्रदेश (एक्को व दुगे च बहुगा संखातीदा तबो अणंता य संति) एक या दो या बहुत, या असंख्यात तथा अनन्त यथायोग्य होते हैं (कालस्स हि समयत्ति) परन्तु निश्चय से एक प्रवेशी काल द्रश्य के समय पूर्वोक्त संख्या वाले होते हैं। मुक्तात्मा पदार्थ में एकाकार व परम समता रस के भाव में परिणमनरूप परमानन्दमयी एक लक्षण सुखामृत से भरे हुए और केवलज्ञानादि प्रगटरूप अनन्त गुणों के आधारभूत, लोकाकाश प्रमाण शुद्ध असंख्यात प्रवेशों का जो प्रचय या समूह या समुदाय या राशि है उसको तिर्यक् प्रचय, तिर्यक विस्तार सामान्य या अक्रम अनेकान्त कहते हैं। यह प्रदेशों का समुदायरूप तिर्यक् प्रचय जैसे मुक्तात्मा द्रव्य में कहा गया है तसे काल को छोड़कर अन्य द्रव्यों में अपने-अपने प्रदेशों की संख्या के अनुसार तिर्यक्-प्रचय होता है ऐसा कथन समझना चाहिये । तथा समय-समय वर्तने वाली
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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