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________________ ३५४ ] [ पवयणसारो पूर्व और उत्तर पर्यायों की सन्तान को ऊर्ध्व प्रचय, ऊर्ध्व सामान्य, आयत सामान्य, या क्रम अनेकान्त कहते हैं, जैसे मोती की माला में मोतियों को कम से गिना जाता है इसी तरह द्रव्य को समय-समय में होने वाली पर्यायों को कम से गिना जाता है। इन पर्यायों के समूह को ऊर्ध्व सामान्य कहते हैं। यह सब द्रव्यों में होता है। किन्तु काल के सिवाय पाँच द्रक्ष्यों की पूर्व उत्तर पर्यायों का सन्तान रूप जो ऊध्र्य प्रचय है उसका उपादान कारण तो अपना-अपना द्रध्य है परन्तु कालद्रव्य उनके लिये प्रति समय में सहकारी कारण है । परन्तु जो कालद्रव्य का समय सन्तान रूप ऊर्व प्रचय है उसका काल हो उपादान कारण है और काल ही सहकारी कारण है। क्योंकि काल से भिन्न कोई और समय नहीं है । काल की जो पर्यायें हैं, वे ही समय हैं ऐसा अभिप्राय है ॥१४१॥ अथ कालपदार्थोर्वप्रचयनिरन्वयत्वमुपहन्ति उप्पादो पद्धसो विज्जदि जदि जस्स एगसमयम्हि । समयस्स सो वि समओ समावसमवदिदो हवदि ॥१४२॥ उत्पादः प्रध्वंसो विद्यते यदि यस्यकसमये । समयस्य सोऽपि समयः स्वभावसमवस्थितो भवति ॥१४२३ । समयो हि समयपदार्थस्य वृत्त्यंशः तस्मिन् कस्याप्यवश्यमुत्पादप्रध्वंसौ संभवतः, परमाणोयतिपातोत्पद्यमानत्वेन कारणपूर्वत्वात् । तौ यदि वृत्त्यंशस्यैव, कि योगपद्येन कि क्रमेण, योगपद्येन चेत् नास्ति योगपy सममेकस्य विरुद्धधर्मयोरनवतारात् । क्रमेण चेत् नास्ति क्रमः, वृत्त्यंशस्य सूक्ष्मत्वेन विभागाभावात् । ततो वृत्तिमान कोऽव्यवश्यमनुसर्तव्यः, स च समयपदार्थ एव । तस्य खल्वेकस्मिन्नपि वृत्त्यंशे समुत्पावप्रध्वंसौ संभवतः । यो हि यस्य वृत्तिमतो यस्मिन् वृत्त्यंशे तवृत्त्यंशविशिष्टत्वेनोत्पावः । स एव तस्यैव वृत्तिमतस्तस्मिन्नेव वृत्त्यंशे पूर्ववृत्त्यशविशिष्टत्वेन प्रध्वंसः । यद्येयमुत्पादव्ययावेकस्मिन्नपि वृत्त्यंशे संभवतः समयपदार्थस्य कथं नाम निरन्धयत्वं, यतः पूर्वोत्तरवृत्त्यशविशिष्टत्वाभ्यां युगपदुपात्तप्रध्वंसोत्पावस्यापि स्वभावेनाप्रध्वस्तानुत्पन्नत्वाववस्थितत्वमेव न भवेत् । एवमेकस्मिन् वृत्त्यंशे समयपदार्थस्योत्पादव्ययध्रौव्यवत्त्वं सिद्धम् ।।१४२।। भूमिका-—अब, कालपदार्थ का ऊध्र्वप्रचय निरन्वय है, इसका खंडन करते हैं अन्वयार्थ—[यदि यस्य समयस्य ] यदि कालका [एक समये] एक समय में [उत्पादः प्रध्वंसः] उत्पाद और विनाश [विद्यते ] पाया जाता है, इसः अपि समयः] तो १. एकसमम्हि (ज० वृ०)। २. सहाबसमबलिदो (ज० वृ०) ।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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