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________________ पवयणसारो । [ ३५५ वह काल भी [स्वभावसमवस्थितः] स्वभाव में अवस्थित (अविनाशी स्वभाव में स्थिर अर्थात् ध्रुव) [भवति ] होता है । टीका—समय काल पदार्थ का वृत्त्यंश (पर्याय) है, उस वृत्त्यंश में किसी के भी उत्पाद तथा विनाश अवश्य संभवित हैं, क्योंकि परमाणु के अतिक्रमण के द्वारा (समयरूपी वृत्त्यंश) उत्पन्न होता है, इसलिये वह कारणपूर्वक है। (परमाणु के द्वारा एक आकाश प्रदेश का मंदगति से उल्लंघन करना कारण है और समयरूपी वृत्त्वंश उस कारण का कार्य है, इसलिये उसमें किसी पदार्थ का उत्पाई तथा विनाश होना चाहिये ।) 'किसी पदार्थ के उत्पाद-विनाश होने की क्या आवश्यकता है ? उसके स्थान पर वृत्त्यंश को ही उत्पाद-विनाश होते हुये मान लें तो क्या हानि है ? इस तर्क का समाधान करते हैंयदि उत्पाद और विनाश वृत्त्यंश के ही माने जायें तो (प्रश्न होता है कि-) (१) वे युगपत् हैं या (२) क्रमशः? (१) यदि 'युगपत्' कहा जाय तो युगपतपना घटित नहीं होता, क्योंकि एक ही समय एक के दो विरोधी धर्म नहीं होते। (एक ही समय एक वृत्त्यंश के, प्रकाश और अंधकार की भांति, उत्पाद और विनाश-दो विरुद्ध धर्म नहीं होते हैं ।) (२) यदि 'क्रमशः' कहा जाय तो कम नहीं बनता, क्योंकि वृत्त्यंश के सूक्ष्म होने से उसमें विभाग का अभाव है । इसलिये (समयरूपी वृत्त्यंश के उत्पाव तथा विनाश होना अशक्य होने से) कोई वृत्तिमान् अवश्य ढूंढना चाहिये। वह (वृत्तिमान् ) काल पदार्थ हो है। उसके वास्तव में एक वृत्त्यंश में भी उत्पाद और विनाश संभव है, क्योंकि जिस वत्तिमान के जिस वृत्त्यंश में उस वृत्त्यंश की अपेक्षा से जो उत्पाद है, वही, उसी वृत्तिमान के उसी वृत्त्यंश में पूर्व वृत्त्यंश की अपेक्षा से विनाश है। (अर्थात्-कालपदार्थ के जिस वर्तमान पर्याय की अपेक्षा से उत्पाद है, वही पूर्व पर्याय की अपेक्षा से विनाश है।) ___ यदि इस प्रकार उत्पाद और विनाश एक वृत्त्यंश में संभवित हैं तो काल पदार्थ निरन्वय कैसे हो सकता है, कि जिससे पूर्व और पश्चात् वृत्त्यंश की अपेक्षा से युगपत् बिनाश और उत्पाद को प्राप्त होता हुआ भी स्वभाव से अविनष्ट और अनुत्पन्न होने से यह (काल पदार्थ) अवस्थित न हो ? अर्थात् अवश्य अवस्थित होगा? काल पदार्थ के एक वृत्यंश में भी उत्पाद और विनाश युगपत् होते हैं, इसलिये वह निरन्वय अर्थात् खंडित नहीं है, इसलिये स्वभावतः अवश्य ध्रुव है । इस प्रकार एक वृत्त्यंश में काल पदार्थ उत्पाद व्यय धोव्य वाला है, यह सिद्ध हुआ ॥१४२॥
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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