SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 223
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पवणारी ] O १६५ उत्थानका- आगे यह पहले कह चुके हैं कि द्रव्य, गुण पर्याय का ज्ञान न होने से मोह रहता है इसलिये अब आचार्य आगम के अभ्यास की प्रेरणा करते हैं अथवा यह पहले कहा था कि द्रव्यपने, गुणपने व पर्यायपने के द्वारा अरहंत भगवान् का स्वरूप जानने से आत्मा का ज्ञान होता है । ऐस आत्मशान के लिये आगम के अभ्यास की अपेक्षा है । इस प्रकार दोनों पातनिकाओं को मन में रखकर आचार्य सूत्र कहते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ - ( जिणसत्थादो ) जिन शास्त्र की निकटता से ( अट्ठे ) शुद्ध आत्मा आदि पदार्थों को ( पच्चक्खाबीहिं) प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों के द्वारा (बुज्झदो ) जानने वाले जीव के (णियमा ) नियम से ( मोहोयचओ) मिथ्या अभिप्राय के संस्कार को करने वाला मोहकर्म का समूह ( खीर्यादि) क्षय हो जाता है ( तम्हा) इसलिये ( सत्थं समादिव्वं ) शास्त्र को अच्छी तरह पढ़ना चाहिये । विशेष यह है कि कोई भव्य जीव वीतराग सर्वज्ञ से कहे हुए शास्त्र से “एगो मे सरसवो अप्पा" इत्यादि परमात्मा के उपदेशक श्रुतज्ञान के द्वारा प्रथम ही अपने आत्मा के स्वरूप को जानता है, फिर विशेष अभ्यास के वश से परमसमाधि के काल में रागादि विकल्पों से रहित मानस प्रत्यक्ष से उस ही आत्मा का अनुभव करता है। तंसे ही अनुमान से भी निश्चय करता है । जैसे इस हो देह में निश्चयनय से शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव रूप परमात्मा है क्योंकि विकार रहित स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से यह इस ही तरह जाना जाता है, जिस तरह सुख दुःख आदि । तैसे ही अन्य भी पदार्थ यथासम्भव आगम से उत्पन्न प्रत्यक्ष सेवा अनुमान से जाने जा सकते हैं। इसलिये मोक्ष के अर्थी पुरुष को आगम का अभ्यास करना चाहिये, यह तात्पर्य है ॥ ८६ ॥ भावार्थ -- जिनवाणी में प्रसिद्ध चारों ही अनुयोगों का कथन हर एक मुमुक्षु को जानना चाहिये। जितना अधिक शास्त्रज्ञान होगा उतना अधिक स्पष्ट ज्ञान होगा। जितना स्पष्ट ज्ञान होगा उतना ही निर्मल मनन होगा । प्रथमानुयोग में पूज्य पुरुषों के जीवन चरित्र उदाहरण रूप से कर्मों के प्रपंत्र को व संसार या मोक्षमार्ग को दिखलाते हैं। कारणानुयोग में जीवों के भावों के वर्तन की अवस्थाओं को व कर्मों की रचना को व लोक के स्वरूप को इत्यादि तारतम्य कथन को किया गया है। चरणानुयोग में मुनि तथा व्यवहारचारित्र पर आरूढ़ किया गया है । आत्म-द्रव्य के मनन, चिंतन व ध्यान का दर्शाया गया है। इन चारों ही प्रकार के aran के चारित्र के भेदों को बताकर व्यानुयोग में छः द्रव्यों का स्वरूप बताकर उपाय बताकर निश्चय रत्नत्रय के पथ को
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy