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________________ १६४ [ पवयणसारो के [नियमात् नियम से [भोहोपचयः] मोह-समूह [क्षीयते] नष्ट हो जाता है। [तस्मात्] इस कारण से [शास्त्र] शास्त्र [समध्येतव्यं] सम्यक् प्रकार से अध्ययन करने योग्य है । टीका-जो द्रध्य-गुण-पर्याय स्वभाव रूप अरहन्त के ज्ञान से आत्मा का वैसा ज्ञान मोह क्षय के उपाय-पने से वास्तव में पहले (अस्सीवी गाथा में) प्रतिपादित किया गया है वह उपाय वास्तव में इस (निम्नलिखित) उपायान्तर को अपेक्षित करता है (उपायान्तर की अपेक्षा रखता है)। (१) प्रथम भूमिका में गमन करने वाले के (२) जो सर्वज्ञ के द्वारा जान कर कहा हुआ होने से सर्व प्रकार से अबाधित है, ऐसे इस शब्द प्रमाण को (द्रव्यश्रुतप्रमाण को) प्राप्त करके क्रीडा करने वाले के, (३) उसके संस्कार से प्रगट हो गई है विशिष्ट संवेदनशक्ति रूप सम्पदा जिसके, (४) सहृदयजनों के हृदय को आनन्द का उभेद देने वाले प्रत्यक्ष प्रमाण से अथवा उससे अविरोधी अन्य प्रमाण समूह से तत्वतः समस्त वस्तु मात्र को जानने वाले के, ऐसे जीव के अतस्व अभिनिवेश के संस्कार को करने वाला मोहोपचय (मोह समूह) क्षय को प्राप्त होता ही है । इस कारण से वास्तव में मोह के क्षय करने में शब्दब्रह्म को उत्कृष्ट उपासना (अर्थात्) भावज्ञान के अवलम्बन द्वारा दृढ किये गये परिणाम से सम्यक् प्रकार अभ्यास करना उपायान्तर है। (अर्थात् जो परिणाम भाव ज्ञान के अवलम्बन से दृढीकृत हो ऐसे परिणाम से द्रव्यश्रुत का अभ्यास करना सी मोह क्षय करने के लिये उपायान्तर है)॥८६॥ तात्पर्यवत्ति अथ द्रव्यगुणपर्यायपरिज्ञानाभावे मोहो भवतीति यदुक्त पूर्वं तदर्थमागमाभ्यासं कारयति, अथवा द्रव्यगुणपर्यायत्वरहत्परिज्ञानादात्मपरिज्ञानं भवतीति यदुक्त, तदात्मपरिज्ञानमिममागमाभ्यासमपेक्षत इति पातनिकायं मनसि धृत्वा सूत्रमिदं प्रतिपादयति,जिणसत्थावो अछे पच्चक्खादोहि बुज्झवो णियमा जिनशास्त्रात्सकाशाच्छुद्धारमादिपदार्थान् प्रत्यक्षादिप्रमाणैर्बुध्यमानस्य जानतो जीवस्य नियमान्निश्चयात् । किं फलं भवति ? खोयवि मोहोवचओ दुरभिनिवेशसंस्कारकारी मोहोपचयः क्षीयते प्रलीयते क्षयं याति । तम्हा सत्थं समाहिदव्यं तस्माच्छास्त्रं सम्यगध्येतव्यं पठनीयमिति । तद्यथा-वीतरागसर्वज्ञप्रणीतशास्त्रात् “एगो मे सस्सदो अप्पा" इत्यादि परमात्मोपदेशकश्रुतज्ञानेन तावदात्मानं जानीते कश्चिद्भव्यः, तदनन्तरं विशिष्टाभ्यासवशेन परमसमाधिकाले रागादिविकल्परहितमानसप्रत्यक्षेण च तमेवात्मानं परिच्छिनत्ति । तथैवानुमानेन वा, तथाहि-अत्रैव देहे निश्चयनयेन शुद्धबुद्धकस्वभावः परमात्मास्ति । कस्माद्धेतो: ? निर्विकारस्वसंवेदनप्रत्यक्षत्वात् सुखादिवत् इति, तथवान्येपि पदार्था यथासंभवमागमाभ्यासबलोत्पन्न प्रत्यक्षेणानुमानेन वा ज्ञायन्ते । ततो मोक्षार्थिना भव्येनागमाभ्यासः कर्तव्य इति तात्पर्यम् ।।८६।।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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