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________________ ३५० ] [ पवयणसारो भूमिका – अब, आकाश के प्रदेश का लक्षण सूत्र द्वारा कहते हैं - अन्वयार्थ – [ अणुनिविष्टं आकाशं ] एक परमाणु जितने आकाश में रहता है उतने आकाश की [ आकाश प्रदेशसंशया । 'आकाश प्रदेश' के नाम से [ भणितम् ] कहा गया है । [च] और [ तत् ] वह [ सर्वेषां अणूनां ] समस्त परमाणुओं को [ अवकाशं दातुं शक्नोति ] अवकाश देने को समर्थ है । टीका- आकाश का एक परमाणु से व्याप्त अंश आकाश प्रदेश है। वह एक ( आकाशप्रदेश ) भी शेष पांच द्रव्यों के प्रदेशों को तथा सूक्ष्मता रूप से परिणमित अनन्त परमाणुओं को और स्कंधों को अवकाश देने में समर्थ है। आकाश अविभाग ( अखंड ) एक द्रव्य होने पर भी, उसके ( प्रदेशरूप ) अंशकल्पना है, क्योंकि यदि ऐसा न हो तो सर्व परमाणुओं को अवकाश देना नहीं बन सकता । यदि 'आकाश के अंश नहीं होते' (अर्थात् अंशकल्पना नहीं की जातो), ऐसी (किसो की ) मान्यता हो तो आकाश में दो उंगलियां यदि एक है तो ( प्रश्न द्रव्य है, द्रव्य है, इसलिये वो इसलिये ? फैलाकर बताइये कि 'दो उंगलियों का एक क्षेत्र है या अनेक ?' होता है कि - ), ( १ ) आकाश अभिन्न अंशों वाला अविभाग एक अंगुलियों का एक क्षेत्र है या (२) भिन्न अंशों वाला अविभाग एक (१) यदि 'आकाश अभिन्न अंश वाला अविभाग एक द्रव्य है इसलिये दो अंगुलियों का एक क्षेत्र है' ऐसा कहा जाय तो, जो अंश एक अंगुली का क्षेत्र है वही अंश दूसरी अंगुली का भी है, इसलिये दोनों में से एक अंश का अभाव हो गया इस प्रकार दो इत्यादि ( एक से अधिक ) अंशों का अभाव होने से आकाश परमाणु की भांति प्रदेशमात्र सिद्ध हुआ । (इसलिये यह तो घटित नहीं होता ), ( २ ) यदि यह कहा जाय कि 'आकाश भिन्न अंशों वाला अविभाग एक द्रव्य हैं' (इसलिये दो अंगुलियों का एक क्षेत्र है) तो ( यह योग्य हो है, क्योंकि ) अविभाग एक द्रव्य में अंश-कल्पना फलित हुई । यदि यह कहा जाय कि ( बो अंगुलियों के) 'अनेक क्षेत्र हैं' ( अर्थात् एक से अधिक क्षेत्र हैं, एक नहीं) तो ( प्रश्न होता है कि - ), आकाश सविभाग ( खंडरूप ) अनेक द्रव्य हैं इसलिये दो अंगुलियों के अनेक क्षेत्र हैं या ( २ ) आकाश के अविभाग एकद्रव्य होने पर भी दो अंगुलियों के अनेक क्षेत्र हैं ? (१) यदि सविभाग अनेक द्रश्य होने से माना जाय तो आकाश जो कि एक द्रव्य है उसे अनन्त द्रव्यत्व आ जायगा, (इसलिये यह तो घटित नहीं होता ), ( २ ) यदि अविभाग एक द्रव्य होने से माना जाय तो ( यह योग्य हो है, क्योंकि) अविभाग एक द्रव्य में अंशकल्पना फलित हुई || १४० ॥
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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