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________________ पवयणसारो ] [ ३२५ ___ द्रव्यमाश्रित्य परानाश्रयत्वेन वर्तमानलिङ्गयते गम्यते द्रव्यमेतैरिति लिङ्गानि गुणाः । ते च यद्रव्यं भवति न तद्गुणा भवन्ति, ये गुगा भवन्ति ते न द्रव्यं भवतीति द्रव्यादतभावेन विशिष्टाः सन्तो लिङ्गलिङ्गिप्रसिद्धौ तल्लिङ्गत्वमुपदोकन्ते । अथ ते द्रव्यस्य जीवोऽयमजीवोऽयमित्यादिविशेषमुत्पावयन्ति, स्वयमपि तद्भावविशिष्टत्वेनोपातविशेषत्वात् । यतो हि यस्य यस्य व्रव्यस्य यो यः स्वभावस्तस्य तस्य तेन तेन विशिष्टत्वात्तेषामस्ति विशेषः । अत एव च मूर्तानाममूर्तानां च द्रव्याणां मूर्तत्वेनामूर्तत्त्वेन च तद्भावेन विशिष्टत्वादिमे मूर्ता गुणा इमे अमूर्ता इति तेषां विशेषो निश्चेयः ॥१३०॥ भूमिका--अब यह बतलाते हैं कि-गुण-विशेष (गुणों के भेद) से द्रव्य-विशेष (द्रव्य का भेद) होता है अन्वयार्थ-[यः लिंगः] जिन लिंगों से [द्रव्यं ] द्रव्य [जीवः अजीवः च] जीव और अजीव के रूप में [विज्ञार मानि] ज्ञात होता है, [ने] वे [अत्तदभावविशिष्टाः] अतद्भाव से विशिष्ट (मूर्त गुण का अमूर्त में अतभाव तथा अमूर्त का मूर्त में अतद्भाव, अथवा अतद्भाव के द्वारा द्रव्य से भिन्न) [मूर्तामूर्ताः] मूर्त-अमूर्त [गुणाः] गुण [ज्ञेयाः] जानने चाहिये। टीका-द्रव्य का आश्रय लेकर और परके आश्रय के बिना प्रयतमान होने से जिनके द्वारा द्रव्य गलगित' (चिन्हित) होताहै-पहचाना जाता है, ऐसे लिंग गुण हैं । वे (गुण), 'जो द्रव्य हैं वे गुण नहीं हैं और जो गुण हैं वे द्रव्य नहीं हैं। इस अपेक्षा से द्रव्य से अतद्भाव के द्वारा विशिष्ट (भिन्न) रहते हुये, लिंगी के रूप में प्रसिद्धि (परिचय) के समय द्रव्य के लियत्व को प्राप्त होते हैं। अब, वे द्रव्य के-'यह जीव है, यह अजीव है-ऐसे भेद उत्पन्न करते हैं, क्योंकि स्वयं भी, तद्भाव (जीवत्व-अजीयत्व भाव) के द्वारा विशिष्ट (भिन्न) होने से विशेष (भेद) को प्राप्त है। क्योंकि जिस द्रव्य का जो जो स्वभाव हो उस उसका उस उसके द्वारा विशिष्टत्व होने से उनके विशेष (भेद) हैं। इसीलिये मूर्त तथा अमूर्त द्रव्यों का मर्तत्व अमूर्तत्व रूप तद्भाध के द्वारा विशिष्टत्य होने से, उनके इस प्रकार के भेद निश्चित करने चाहिये कि 'यह मूर्त गुण हैं और यह अमूर्तगुण हैं' ॥१३०॥ तात्पर्यवृत्ति अथ ज्ञानादिविशेषगुणभेदेन द्रव्यभेदमावेदयति लिंगेहि जेहि लिगैर्यः सहजशुद्धपरमचैतन्यविलासरूपैस्तथैवाचेत जडपर्वा लिगश्चिन्हैविशेषगुणयः करणभूतैर्जीवेन कतृ भूतेन हदि विष्णादं विणेषेण ज्ञातं भवति 1 कि कर्मतापन्न ? दवं द्रव्यं । कथम्भूतं ? जीवमजीवं च जीवद्रव्यमजीवद्रव्यं च ते मुत्तामुत्तागुणा णेया ते तानि पुर्वोक्तचेतनाचेतन
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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