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________________ पवयणसारो ] [ ६१७ (हवदि) हो जाता है। जो कोई साधु दूसरे साधु को निश्चय तथा व्यवहार मोक्षमार्ग में चलते हुए देखकर भी निर्दोष परमात्मा की भावना से विलक्षण द्वेष व कषाय उनसे उसका अपवाद करता है इतना ही नहीं उसको यथायोग्य वंदना आदि कार्यों में अनुमति नहीं करता है वह किसी अपेक्षा से मर्यादा के उल्लंघन करने से चारित्र से भ्रष्ट हो जाता है । जिसका भाव यह है कि यदि रत्नत्रय मार्ग में स्थित साधु को देखकर ईर्ष्यामाव से दोष ग्रहण करे तो वह प्रगटपने चारित्र-भ्रष्ट हो जाता है। पीछे अपनी निन्दा करके उस भाव का छोड़ देता है तो उसका दोष मिट जाता है अथवा कुछ काल पोछे इस भाव को त्यागता है तो भी उसका दोष नहीं रहता है, परन्तु यदि इसी ही भाव को दृढ करता हुआ तीन कषाय भाव से मर्यादा को उल्लघन कर वर्तन करता रहता है तो वह अवश्य चारित्र-भ्रष्ट हो जाता है यहां यह भावार्थ है । बहुत शास्त्र-ज्ञाताओं को थोड़े शास्त्रज्ञाता साधुओं का दोष नहीं ग्रहण करना चाहिये और न अल्पशास्त्री साधुओं को उचित है कि थोड़ा सा पाठ मात्र जानकर बहुत शास्त्री साधुओं का नाम करे किनु परस्पर कुछ भी सारभाव लेकर स्वयं शुद्ध स्वरूप को भाबना ही करनी चाहिये क्योंकि रागद्वेष के पैदा होते हुए न बहुत शास्त्र ज्ञाताओं को शास्त्र का फल होता है, न तपस्वियों को तप का फल होता है ॥२६॥ __यहां शिष्य ने कहा कि आपने अपवाद मार्ग के व्याख्यान के समय शुभोपयोग का वर्णन किया अब यहां फिर किसलिये उसका व्याख्यान किया गया है ? इसका समाधान यह है कि यह कहना आपका ठीक है, परन्तु वहां पर सर्व-त्याग स्वरूप उत्सर्ग व्याख्यान को करके फिर असमर्थ साधुओं को काल की अपेक्षा से कुछ भी ज्ञान, संयम व शौच का उपकरण आदि ग्रहण करना योग्य है इस अपवाद व्याख्यान की मुख्यता है। यहां तो जैसे भेदनय से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र व सम्यक्तप रूप चार प्रकार आराधना होती है सो ही अभेवनय से सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र रूप से दो प्रकार की होती हैं। इनमें भी अभेदनय से एक ही धीतरागचारित्ररूप आराधना होती है वैसे ही भेदनय से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यकचारित्र रूप से तीन प्रकार मोक्षमार्ग है सो ही अभेदनय से एक श्रमणपना नाम का मोक्षमार्ग है जिसका अभेदरूप से मुख्य कथन "एयग्गमदो समणो" इत्यादि चौदह गाथाओं में पहले हो किया गया यहां मुख्यता से उसी का भेवरूप से शुभोपयोग के लक्षण को कहते हुए व्याख्यान किया गया इसमें कोई पुनरुक्ति का दोष नहीं है।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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