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________________ गाथा संख्या २४६ २५० ** २५९ २५३ २५४ २५५ २५६ २५७ २५८ २५६ २६० २३१ २६३ २६८ २६५ २६६ २६७ ( ३१ ) विषय जीवों की विराधना से रहित संघ का उपकार करने वाले मुनि में भी राग की जो प्रधानता है । ५६३-६५ अल्प यदि वैयावृत्ति में जीवों की विराधना करता है तो वह मुनि गृहस्थ हो जाता है ५६५-६६ होता है बिना किसी इच्छा के वक तथा मुनियों की दया सहित उपकार करे । इस गाथा से 'एक दूसरे का उपकार या अपकार नहीं कर सकता' इस मत का खण्डन हो जाता है रोग से, क्षुधा से, तृषा से अथवा थकावट से पीडित देखकर अपनी शक्ति अनुसार वैयावृत्यादि करनी चाहिये वैयावृत्य के लिये लौकिक जीवों से बात चीत करने का निषेध नहीं है प्रशस्तभूत चर्या श्रमणों में गौण है, तथा गृहस्थों के मुख्य है, क्योंकि इसी से गृहस्थ परम सौख्य को प्राप्त होता है। शुभोपयोगी के कारण की विपरीतता से फल की विपरीतता २६८ १६८९ सर्वज्ञ कथित वस्तुओं में युक्त शुभोपयोग का फल पुण्य संचय पूर्वक मोक्ष प्राप्ति है। कारण की विपरीतता से फल विपरीत होता है अतः छद्मस्थ शुभोपयोग का फल अधम पुण्य है। जो निश्चय तथा व्यवहार धर्म को नहीं जानता मात्र पुण्य को मुक्ति का कारण कहता है उसको इस गाथा में छद्मस्थ कहा है न कि गणधर आदि को कुगुरु की सेवा उपकार या दान का फल कुदेव या कुमनुष्ययोनि है विषय कषाय पाप है अतः विषय कषाय में रत कुगुरु तारक नहीं हो सकते सुगुरु निज को तथा पर को मोक्ष तथा पुण्य का आयतन है शुद्धोपयोगी अथवा शुभोपयोगी मुनि लोगों को तार देते हैं संघ में आने वाले साधु को देखकर यथा सम्भव आदर करना चाहिये गुणों में अधिक के साथ विशेष क्रिया करनी चाहिये यथार्थ श्रमण ही आदर करने योग्य हैं. पृष्ठ संख्या ५६६-६३ *£= ५६६-६०० ६००-०२ ६०९-०३ ६०३-०५ ६०५-०६ ६०६-०७ ६०७-०८ ६०८-१० ६१०...११ ६११.१२ ६१२-१४ ६१४-१५ श्रुत संयम तप से युक्त होने पर भी यदि अश्रद्धानी है तो श्रमणाभास है। जो श्रमण को देखकर द्वेष से अपवाद करता है तथा आदर आदि करने में अनुमत नहीं है, उसका चारित्र नष्ट हो जाता है ६१६-२१ गुणों में अधिक श्रमणों से जो विनय चाहता है वह अनन्त संसारी है। स्वयं गुणों में अधिक होकर भी हीनगुण बालों के प्रति वन्दना आदि क्रिया करते हैं वे मिथ्यादृष्टि होते हुए चरित्र से भ्रष्ट होते हैं fare श्रमण भी यदि लौकिक जनों के संसर्ग को नहीं छोड़ते वे संयत नहीं हैं ६२१-२३ भूखे प्यासे या दुखी को देखकर जो दुखित मन होकर दया परिणाम से उसका भला करता है वह अनुकम्पा हैं । ज्ञानी जीव दया को अपने आत्मीकभाव को नाश न करते हुए संक्लेश को परिहार करने के लिये करते हैं । ६१५-१७ ६१५-१६ ६२३
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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