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________________ गाथा संख्या २४० २४१ २४२ २४३ २४४ २४५ ( ३० ) विषय पांच समिति, पांच इन्द्रियों का संवर, कषायों को जोतना, दर्शन ज्ञान से परिपूर्णता संयम हैं ऐसे संयमी के ही आगमज्ञान तत्त्वार्थश्रद्धान और संयम की युगपत्ता के साथ आत्मज्ञान की युगपत्ता सिद्ध होती है जिसके शत्रु-मित्र, सुख-दु:ख, प्रशंसा-निन्दा, लोष्ठ सुबर्ण जीवन मरण समान है। वह श्रमण है उसके आगम ज्ञान श्रद्धान संयम के साथ आत्मज्ञान है जो दर्शन ज्ञान चारित्र इन तीनों में एक साथ ठहरा हुआ है उसको एकाग्रता प्राप्त होती है, उसी के श्रामण्य परिपूर्ण है निर्विकल्पसमाधिकाल में रत्नत्रय को एकाग्र कहते हैं । वही परमसाम्य है इसी को शुद्धोपयोगलक्षण श्रामण्य तथा मोक्षमार्ग कहते हैं व्यवहारनय से सम्यग्दर्शनज्ञान- चारित्र मोक्षमार्ग है निश्चयनय से एकाग्रता मोक्षमार्ग है जो शुद्धात्मा में एकाग्र नहीं होता उसको मोक्ष नहीं होता जो अन्य पदार्थों में मोह नहीं करता, राग नहीं करता, द्वेष नहीं करता बह नियम से कर्मों का क्षय करता है। ૨૦૬ २४३७ २४८ पृष्ठ संख्या सयोगि केवल के भी एकदेशचारित्र है पूर्ण चारित्र अयोगि जिन के होता है। अभेदनय से ध्यान ही चारित्र है, वह ध्यान केवलियों के उपचार से है तथा चारित्र भी उपचार से है । सम्यग्दर्शन पूर्वक सर्व रागादि विकल्पों से रहित शुद्धात्मानुभूति लक्षण वाला वीतरागचारित्र है वही कार्यकारी है ५.७५--७.३ ५७८-६० 450-53 ५८३ ५-४-८६ शुभोपयोग शुद्धोपयोगी भी श्रमण होते हैं और शुभोपयोगी भी । शुद्धोपयोगी निरास्रव हैं, शुभोपयोगी सास्रव हैं निश्चय से सिद्ध जीव ही जीव है परन्तु व्यवहारनय से चारों गति के अशुद्ध जीव भी जीव हैं ५५६-५६ अरहन्त आदि में भक्ति प्रवचन तथा साधु में वात्सल्य शुभोपयोग है ५२६-६० श्रमणों के प्रति वन्दना नमस्कार खड़ा होना आदि रागचर्या में निषिद्ध नहीं है ५६०-६१ उदेश देना शिष्यों को ग्रहण आदि सरागियों की चर्या हैं। ५६२ शुभपयोगी भी शुद्धोपयोग की भावना कर लेते हैं और शुद्धोपयोगी भी किसी काल में शुभोपयोग द्वारा व्रत कर लेते हैं ५६३
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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