SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 191
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पवयणसारो ] अतीन्द्रियसुख) [नास्ति ] नहीं है। [ते] वे [देहवेदनार्ताः] (पंचेन्द्रियमय) देह को वेदना से पीड़ित हुये (रम्येषु विषयेषु] रम्य (मनोहर) विषयों में [रमन्ते] रमन्ते हैं। ____टीका-इन्द्रिय-सुख के भाजनों (पात्रों) में प्रधान देव हैं । उनके भी वास्तव में स्वाभाविक सुख नहीं है, उलटा उनके स्वाभाविक दुख ही देखा जाता है, क्योंकि वे पंचेन्द्रियात्मक शरीर रूपी पिशाच की पीड़ा के परवश हुए, पर्वत से गिरकर मरने के समान मनोहर इन्द्रिय विषयों में पतन करते है (पडते) हैं ॥७१॥ तात्पर्यवृत्ति अथ पूर्वोक्तमिन्द्रियसुखं निश्चयनयेन दुःखमेवेत्युपदिशति सोक्खं सहावसिद्ध रागाधुपाधिरहितं चिदानन्दै कस्वभावेनोपादान कारणभूतेन सिद्धमुत्पन्न पत्स्वाभाविकसुखें तत्स्वभावसिद्धं भण्यते । तच्च णत्थि सुराणपि आस्तां मनुष्यादोनां सुख देवेन्द्रादीनामपि नास्ति सिजमुवदेसे इति सिद्धपुपदिष्टमुपदेशे परमागमे। ते वेहवेदणता रमंति विसएसु रम्मेसु तथाभूतसुखाभापति देवालयों देहवेदनाः पीडिताः कथिता सन्तो रमन्ते विषयेषु रम्याभासेविति । ___ अथ विस्तर:-अधोभागे सप्तन रकस्थानीयमहाऽजगरप्रसारितमुखे, कोणचतुष्के तु क्रोधमानमायालोभस्थानीयसर्प चतुष्कप्रसारित देहस्थानीयमहान्धकूपे पतित: सन् कश्चित् पुरुषविशेष, संसारस्थानीयमहारण्ये मिथ्यात्वादिकुमार्गे नष्ट: पतितः सन् मृत्युस्थानीयहस्तिभयेनायुष्कर्मस्थानीये साटिकविशेषे शुक्लकृष्णपक्षस्थानीय शुक्लकृष्णमूषकद्वय छेद्यमानमूले व्याधिस्थानीयमधुमक्षिकावेष्टिते लग्नस्ते नैव हस्तिना हन्यमाने सति विषयसुखस्थानायमधु विन्दुसुस्वादेन यथा सुखं मन्यते, तथा ससारसुखम् । पूर्वोक्तमोक्षसुखं तु तद्विपरीतमिति तात्पर्यम् । ७१।। उत्थानिका-आगे आचार्य दिखाते हैं कि पूर्वगाथा में जिस इंद्रियसुख को बतलाया हैं वह सुख निश्चयनय से सुख नहीं है, दुःखरूप ही है । ___अन्वय सहित विशेषार्थ-—मनुष्याधिकों के सुख की तो बात ही क्या है (सुराणयि) देवों व इन्द्रों के भी (सहावसिद्धं सोखं) स्वभाव से सिद्ध सुख अर्थात् रागद्वेषादि को उपाधि रहित चिदानन्दमयी एक स्वभाव रूप उपादानकारण से उत्पन्न होने वाला जो स्वाभाविक अतींद्रियसुख है सो (णत्थि) सुख नहीं होता है। (उबदेसे सिद्धं) यह परमागम में उपदेश किया गया है। ऐसे अतींद्रियसुख को न पाकर (ते देहवेवणत्ता) ये देवाविक शरीर को देवना से पीड़ित होते हुए (रम्भेसु विसयेसु रमंति) रमणीक दिखने वाले इन्द्रिय विषयों में रमण करते हैं। इसका विस्तार यह है कि संसार का सुख इस तरह का हैं कि जैसे कोई पुरुष किसी वन में हो, हाथी उसके पीछे दौड़े, वह घबरा कर ऐसे वृक्ष पर चढ़ जावे जिसके नीचे महा अजगर मुख फाड़े बैठा हो व चार कोनों में चार सांप मुख फैलाए बैठे हों भौर
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy