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________________ पवयणसारो ] [ ५६१ शुभोपयोगिनां हि शुद्धात्मानुरागयोगिचारित्रतया समधिगतशुद्धात्मवृत्तिषु श्रमणेषु वन्दननमरकरणाभ्युत्थानानुगमनप्रतिपत्तिप्रवृत्तिः शुद्धात्मवृत्तित्राणनिमिसा श्रमापनयनप्रवृतिश्च न दुष्येत् ॥२४॥ गुणिका-भार, गुमोपयोगी भगनों के प्रति बतलाते हैं अन्वयार्थ-[श्रमणेषु] श्रमणों के प्रति [वन्दननमस्करणाभ्यां] वन्दन-नमस्कार पूर्वक [अभ्युत्थानानुगमनप्रतिपत्तिः] खड़ा हो जाने और पीछे चलने से विनय सहित प्रवृत्ति करना तथा [श्रमापनय:] उनकी थकान दूर करना [रागचर्यायाम् ] रागचर्या में [न निन्दिता] निषिद्ध नहीं है। टीका-जिनने शद्वात्म परिणति प्राप्त की है ऐसे श्रमणों के प्रति शभोपयोगियों के शुद्धात्मा के अनुरागयुक्त चारित्र के द्वारा जो वन्दन-नमस्कार-अभ्युत्थान-अनुगमन रूप विनययुक्त प्रवत्ति तथा शुद्धात्मपरिणति को रक्षा की निमित्तभून जो थकान दूर करने की (वयावृत्यरूप) प्रवृत्ति है, वह शुभोपयोगियों के लिये दूषित नहीं है ।।२४७॥ तात्पर्यवृत्ति अथ शुभोपयोगिनां शुभप्रवृत्ति दर्शयति ण णिदिदा नैव निषिद्धा । क्ब ? रायचरियमिह शुभरागचर्यायां सरागचारित्रावस्थायाम् । का न निन्दिता? बंदणणमंसणेहिं अभुट्ठाणाणुगमणपङिवत्ती वन्दननमस्काराभ्यां सहाभ्युत्थानानुगमनप्रतिपत्तिप्रवृत्ति : । समणेसु समावणओ श्रमणष श्रमापनयः रत्नत्रयभावनाभिधातकश्रमस्य खेदस्य विनाश इति । अनेन किमुक्तं भवति–शुद्धोपयोगसाधके शुभोपयोगे स्थितानां तपोधनानां इत्थंभूताः शुभोपयोगप्रवृत्तयो रत्नत्रयाराधकस्वरूपेषु विषये युक्ता एव विहिता एवेति ॥२४७।। उत्थानिका-आगे शुभोपयोगी मुनियों की शुभ प्रवृत्ति को और भी दर्शाते हैं । अन्वय सहित विशेषार्थ----(रायचरियम्हि) शुभ राग रूप आचरण में अर्थात् सराग चारित्र की अवस्था में (बंदणणमंसणेहि) वंदना और नमस्कार के साथ-साथ (अब्भुट्ठापाणुगमणपडियत्ती) आते हुए साधु को देखकर उठ खड़ा होना, उनके पीछे-पीछे चलना आदि प्रवृत्ति तथा (समणेसु) साधुओं के सम्बन्ध में उनका (समावणी) खेद दूर करना आदि क्रिया (ण णिदिया) निषेध्य या जित नहीं है । पंच परमेष्ठियों का वंदना नमस्कार व उनको देखकर उठना, पीछे चलना आदि प्रवृत्ति व रत्नत्रय को भावना करने से प्राप्त जो परिश्रम का खेद उसको दूर करना आदि शुभोपयोग रूप प्रवृत्ति रत्नत्रय की आराधना करने वाले साधुओं के लिये मना नहीं है किन्तु करने योग्य है। जो साधु शुद्धोपयोग के साधक शुभोपयोग में ठहरे हुए हैं उनके लिये रत्नत्रय के आराधकों के सम्बन्ध में इस प्रकार की शुभ प्रवृत्ति उचित ही है ॥२४७॥
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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