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________________ [ पवयणसारो टीका-सकलपरिग्रह के त्याग स्वरूप श्रामण्य के होने पर भी जो कषायांश के आवेश के यश केवल शुद्धात्म-परिणतिरूप से रहने में स्वयं अशक्त है, ऐसा श्रमण, पर जो (१) केवल शुद्धात्मपरिणतरूप से रहने वाले अर्हन्ताविक तथा (२) केवल शुद्धात्मपरिणतरूप से रहने का प्रतिपादन करने वाले प्रवचनरत जीव हैं उनके प्रति (१) भक्ति तथा (२) वात्सल्य से चंचल है उस (श्रमण) के, मात्र उत्तने राग से प्रवर्तमान परद्रव्यप्रवृत्ति के साथ शुद्धात्मपरिणति-मिलित होने से, शुभोपयोगी श्रमण वाला चारित्र है। इसलिये शुद्धात्मा का अनुरागयुक्त चारित्र शुभोपयोगी श्रमणों का लक्षण है ॥२४६॥ ___ तात्पर्यवृत्ति अथ शुभोपयोगिश्रमणानां लक्षणमाख्याति सा सुहजुत्ता हवे चरिया सा चर्या शुभयुक्ता भवेन् । कस्य ? तपोधनस्य । कथंभूतस्य ? ममस्तरागादिविकल्परहितपरमसमाधी स्थातुमशक्यस्य । यदि किम् ? विज्जवि जदि विद्यते यदि चेत् । क्व ? सामण्णे श्रामण्ये चारित्रे । किं विद्यते ? अरहंतादिसु भत्तो अनन्तगुणयुक्त वर्हत्सिद्धेषु गुणानुरागयुक्ता भक्तिः वच्छलदा वत्सलस्य भावो वत्सलता बात्सल्यं विनयोऽनुकूल वृत्तिः । केषु विषयेषु ? पबयणाहिजुत्तेसु प्रवचनाभिधुक्लेषु । प्रवचनशब्देनानागभी भण्यते संधी वा तेन प्रवचने नाभियुक्ताः प्रवचनाभियुक्ता आचार्योपाध्यायसाधवस्तेष्विति । एतदुक्त भवति--स्वयं शुद्धोपयोगलक्षणे परमसामायिके स्थातुमसमर्थस्यान्येषु शुद्धोपयोगफलभूतकेवलज्ञानेन परिणतेषु तथैव शुद्धोपयोगाराधकेषु च याऽसौ भक्तिस्तच्छुभोपयोगिश्रमणानां लक्षणमिति ।।२४६॥ उत्थानिका—आगे शुभोपयोगी साधुओं का लक्षण कहते हैं। ___ अन्वय सहित विशेषार्थ-(जवि) यदि (सामष्णे) मुनि के चारित्र में (अरहंतादिस् भत्ती) अनन्त गुण सहित अरहंत तथा सिद्धों में गुणानुराग रूप भक्ति है (पवयणाहिजुत्तंसु वच्छलदा) आगम या संघ के धारी आचार्य उपाध्याय व साधुओं में विनय, प्रीति व अनुकूल वर्तन (विज्जदि) पाया जाता है तब (सा चरिया सुहजुत्ता हवे) वह आचरण शुभोपयोग सहित होता है। जो साधु सर्व रागादि विकल्पों से शुन्य परमसमाधि अथवा शुद्धोपयोग रूप परमसामायिक में तिष्ठने को असमर्थ है उसके शुद्धोपयोग के फल को पाने वाले केवलज्ञानी अरहंत सिद्धों में जो भक्ति है तथा शुद्धोपयोग के आराधक आचार्य उपाध्याय साधु में जो प्रीति है यही शुभोपयोगी साधुओं का लक्षण है ॥२४६।। अथ शुभोपयोगिश्रमणानां प्रवृत्तिमुपदर्शयति वंदणणमसहिं अन्भुट्ठाणाणुगमणपडिवत्ती। समणेसु समावणओ णिदिवा रायचरियम्हि ॥२४७॥ वन्दननमस्करणाभ्यामभ्युत्थानानुगमनप्रतिपत्तिः। श्रमणेषु श्रमापनयो न निन्दिता रागचर्यायाम् ॥२४७।।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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