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________________ प्रयणसारो ] [ २४७ तात्पर्यवृत्ति अथोत्पादव्ययनौव्याणां परस्परसापेक्षत्वं दर्शयति ग भवो भंगविहीणो निर्दोषपरमात्मरुचिरूपसम्यक्त्वपर्यायस्य भव उत्पादः, तद्विपरीतमिथ्यात्वपर्यायस्य भङ्ग विना न भवति । कस्मात् ? उपादानकारणाभावात्, मृत्पिण्डभङ्गाभावे घटोत्पाद इव । द्वितीयं च कारणं मिथ्यात्वपर्यायभङ्गस्य सम्यक्त्वपर्यायरूपेण प्रतिभासनात् । तदपि कस्मात् ? "भावातरस्वभावरूपो भवत्यभावः' इति वचनात् । घटोत्पादरूपेण मृत्पिण्डभङ्ग इव । यदि पुमिथ्यात्वपर्यायभङ्गस्य सम्यक्त्वोपादानकारणभूतस्याभावेऽपि शुद्धात्मानुभूतिरुचिरूपसम्यक्त्वस्वोत्पादो भवति, तपादानकारणरहिताना खपुष्पादीनामप्युत्पादा भवतु ? न च तथा । मंगी या गस्थि सभवविहीणो सरन्योपादेयरूपमिथ्यात्वस्य भङ्गो नास्ति । कथंभूतः ? पूर्वोक्तसम्यक्त्वपर्यायसंभवरहितः । कस्मादिति खेत ? भङ्गकारणाभावात्, घटोत्पादाभावे मृत्पिण्डस्येव । द्वितीयं च कारणं सम्यक्त्वपर्यायोत्पादस्य मिथ्यात्वपर्यायाभावरूपेण दर्शनात् । तदपि कस्मात् ? पर्यायस्य पर्यायान्तराभावरूपत्वाद्, घटपर्यायस्य भूपिण्डाभावरूपेणेव । यदि पुनः सम्यक्त्वोत्पादनिरपेक्षो भवति मिथ्यात्वपर्यायाभाबस्तहिअभाव एव न सस्यात् । कस्मात् ? अभावकारणाभावादिति, घटोत्पादाभावे मृत्पिण्डाभावस्य इव । उप्पादोवि य भंगो पिता बनेण अत्येण परमात्मरुचिरूपसम्यक्त्वस्योत्पादस्तद्विपरीतमिथ्यात्वस्य भङ्गो वा नास्ति । दिना? तदुभयाधारभूतपरमात्मरूपद्रव्यपदार्थ विना। कस्मात् ? द्रव्याभावे व्ययोत्पादाभावान्मृत्तिभाद्रव्यभावे घटोत्पादमृत्पिण्डभङ्गाभावादिति । यथा सम्यक्त्वमिथ्यात्वपर्यायद्वये परस्परसापेक्षमुत्पादात्रयं दशितं तथा सर्वव्यपर्यायेषु द्रष्टव्यमित्यर्थः ॥१०॥ उत्पानिका-आगे उत्पाद व्यय धौथ्य इन तीनों में परस्पर अपेक्षापना है, ऐसा दिखलाते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(भंगविहीणो भवो ण) व्यय के विना उत्पाद नहीं होता (ग) तथा (संभवविहीणो भगो णत्थि) उत्पाद के विना भंग या व्यय नहीं होता है न) और (उप्पादो वि) उत्पाद तथा (भंगो) व्यय (दश्वेण अत्येण विणा ण) प्रौव्य हार्य के बिना नहीं होते। निर्दोष परमात्मा की रुचिरूप सम्यक्त्व अवस्था का उत्पाद सम्यक्त्व से विपरीत प्यारण पर्याय के नाश के विना नहीं होता है क्योंकि उपादानकारण के अभाव से कार्य नहीं बन सकेगा। जब उपादानकारण होगा तब ही कार्य हो सकता है। जैसे मिट्टी के का नाश हुए विना घड़ा नहीं पैदा हो सकता है। मिट्टी का पिंड उपादानकारण है। बा कारण यह है कि जो मिथ्यात्यपर्याय का नाश है वही सम्यक्त्व की पर्याय का लिमास है क्योंकि ऐसा सिद्धान्त का घचन है कि "भावान्तरस्वभावरूपो भव.यभावः" भाव रूप स्वभाव हो अभाव होता है अर्थात् अभाव नहीं होता-अन्य अवस्थारूप मलमना हो अमाव है, जैसे घटका उत्पन्न होना ही मिट्टी के पिंड का भंग (व्यय) है। यदि
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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