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________________ पवयणसारो 1 रहा है यदि अपने से अन्य रागादि परिणामों में नहीं परिणादन करता है तो भावकर्म, द्रध्यकर्म, नोकर्म से रहित शुद्ध बुद्ध एक स्थमावरूप आत्मा को प्राप्त करता है। ऐसा अभिप्राय भगवान् श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव का है ॥१२६॥ तात्पर्यवृत्ति एवमेकसूत्रेण पञ्चमस्थलं गतम् । इति सामान्यज्ञेयाधिकारमध्ये स्थलपंचकेन भेदभावना गता । इत्युक्तप्रकारेण तम्हा तस्स णमाई इत्यादि पंचत्रिंशत्सूत्रः सामान्यज्ञेयाधिकार व्याख्यानं समाप्तम् । इत ऊर्ध्वमेकोनविंशतिगाथाभिर्जीबाजीबद्रव्यादिविवरणरूपेण विशेषज्ञेयव्याख्यानं करोति । तत्राटस्थालानि भवन्ति । तेष्वादी जीवाजीवत्वकथनेन प्रथमगाथा, लोकालोकत्वकथनेन द्वितीया, सक्रियनिःक्रियत्वव्याख्यानेन तृतीया चेति । वध जीवमजीवं इत्यादिगाथात्रयेण प्रथमस्थलं, तदनन्तरं ज्ञानादिविशेषगुणानां स्वरूपकथनेन लिंगेहि जेहि इत्यादिगाथाद्वयेन द्वितीयस्थलम । अथानन्तरं स्वकीयस्वकीयविशेषगुणोपलक्षितद्रव्याणां निर्णयार्थ वण्णरस इत्यादिगाथात्रयेण तृतीयस्थलम् । अथ पंचास्तिकायकाथनमुख्यत्वेन जीवा पोग्गलकाया इत्यादिगाथाद्वयेन चतुर्थस्थलम् । अतः परं द्रष्याणां लोकाकाशमाधार इति कथनेन प्रथमा, यदेवाकाशद्रव्यस्य प्रदेशलक्षणं तदेव शेषाणामिति कथनरूपेण द्वितीया चेति, लोयालोयेसु इत्यादिसूत्रद्वयेन पंचमस्थलम् । तदनन्तरं कालद्रव्यस्याप्रदेशत्त्वस्थापनरूपेण प्रथमा, समयरूप: पर्यायकाल: कालाणुरूपो द्रव्यकाल इति कथनरूपेण द्वितीया चेति समओ दु अप्पदेसो इत्यादिगाथाद्वयेन षष्ठस्थलम् । अथ प्रदेशलक्षणकथनेन प्रथमा, तदनन्तर तिर्यक्प्रच योर्ध्वप्रचयस्वरूपकथनेन द्वितीया चंति, आयासमणुणिविट्ठ इत्यादिसूत्रद्वयेन सप्तमस्थलम् । तदनन्तरं कालाणुरूपद्रव्यकालस्थापनरूपेण उप्पादो परभंसो इत्यादिगाथात्रयेणाष्टमस्थलमिति विशेषज्ञेयाधिकारे समुदायपातनिका । समुदायपातनिका-इस तरह एक सूत्र से पांचवां स्थल पूर्ण हुआ इस तरह सामान्य ज्ञेय के अधिकार के मध्य में पांच स्थलों से भेद भावना कही गई । ऊपर कहे प्रमाण "तम्हा तस्स णमाई" इत्यादि पैतीस सूत्रों के द्वारा सामान्य ज्ञेयाधिकार का व्याख्यान पूर्ण हुआ। आगे उन्नीस गाथाओं से जीव अजीव द्रव्यादि का विवरण करते हुए विशेष ज्ञेय का व्याख्यान करते हैं । इसमें आठ स्थल हैं । इन आठ में से पहले स्थल में प्रथम ही जीवत्व व अजीवत्व को कहते हुए पहली गाथा, लोक और अलोकपने को कहते हुए दूसरी, सक्रिय और निःक्रियपने का व्याख्यान करते हुए तीसरी, इसी तरह "दव्वं जीवमजीवं' इत्यादि तीन गाथाओं से पहला स्थल है। इसके पीछे ज्ञान आदि विशेष गुणों का स्वरूप कहते हुए "लिहि जेहि' इत्यादि दो गाथाओं पर दूसरा स्थल है। आगे अपने-अपने गुणों से द्रव्य पहचाने जाते हैं इसके निर्णय के लिये “वण्णरस" इत्यादि तीन गाथाओं से तीसरा स्थल है आगे पंचास्तिकाय के कथन की मुख्यता से "जीवा पोग्गल काया" इत्यादि दो गाथाओं से चौथा स्थल है । इसके पीछे द्रव्यों का आधार लोकाकाश है ऐसा कहते हुये पहली, जसा आकाश द्रव्य का प्रदेश लक्षण है वैसा ही शेष द्रव्यों का है ऐसा कहते हुए
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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