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________________ [ पबयणसासे इस प्रकार श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरि विरचित प्रवचनसार को तत्वदीपिकावृत्ति का ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन में द्रव्यसामान्य कथन अधिकार समाप्त हुआ। तात्पर्यवत्ति अथ सामान्यज्ञेयाधिकारसमाप्तौ पूर्वोक्तभेदभावनायाः शुद्धात्मप्राप्तिरूपं फलं दर्शयति, कत्ता स्वतन्त्रः स्वाधीनः कर्ता साधको निष्पादकोऽस्मि भवामि ।'स कः ? अप्प ति आत्मेति । आत्मेति कोऽर्थः ? अहमिति । कथम्भूतः ? एकः । कस्याः साधक: ? निर्मलात्मानुभूतेः । किविशिष्ट: ? निर्विकारपरमचंतन्यपरिणामेन परिणत: सन् करणं अतिशयेन साधक साधकतमं करणमुपकरणं करणकारकमहमेक एवास्मि भवामि । कस्याः साधक ? सहजशुद्धपरमात्मानुभूतेः। केन कृत्वा ? रागादिविकल्परहितस्वसंवेदनज्ञानपरिणतिबलेन कम्मं शुद्धबुद्धकस्वभावेन परमात्मना प्राप्यं व्याप्यमहमेक एब कर्मकारकमस्मि । फलं च शुद्धज्ञानदर्शनस्वभावपरमात्मनः साध्यं निष्पाद्यं निजशुद्धात्मरुचिपरिच्छित्तिनिश्चलानुभूतिरूपाभेदरत्नत्रयात्मकपरमसमाधिसमुत्पन्नसुम्बामृत रसास्त्रादपरिणतिरूपमहमेक एव फलं चास्मि णिच्छिदो एवमुक्त प्रकारेण निश्चितमतिः सन् समणो सुखदुःखजीवितमरणशत्रुमित्रादिसमताभावनापरिणत: श्रमणः परममुनिः परिणवि व अण्णं जदि परिणमति नैवान्यं रागादिपरिणामं यदिचत् ? अप्पाणं लहवि सुद्धम् तदात्मानं भावकदिव्यकर्मरहितत्वेन शुद्धं शुद्धबुद्धकस्वभावं लभते प्राप्नोति इत्यभिप्रायो भगवतां श्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेवानाम् ।।१२६।। । उत्थानिका-आगे सामान्य ज्ञेय अधिकार की समाप्ति करते हुए पहले कही हुई भेदज्ञान की भावना का फल शुद्धात्मा की प्राप्ति है, ऐसा दिखलाते हैं--- अन्वय सहित विशेपार्थ-(कत्ता, करणं, कम्मफलं च अप्प त्ति) कर्ता, करण, कर्म तथा फल आत्मा ही है, ऐसा (णिच्छिदो) निश्चय करने वाला (समणो) श्रमण या मुनि (जदि) यदि (अण्णं) अन्य रूप (व परिणमदि) नहीं परिणमन करता है तो (सुद्धं अप्पाणं लहदि) शुद्ध आत्मीक स्वरूप को पाता है। मैं एक आत्मा ही स्वाधीन होकर अपनी निर्मल आत्मानुभूति का अपने विकाररहित परम-चैतन्य के परिणाम से परिणमन करता हुआ साधन करने वाला हूँ। इससे मैं ही कर्ता हूँ तथा मैं ही रागादि विकल्पों से रहित अपनी स्वसंवेवनज्ञान की परिणति के बल से सहज शुद्ध परमात्मा की अनुभूति का साधकतम हूँ, अर्थात् अवश्य साधने वाला हूँ इसलिमे मैं ही करण स्वरूप हूँ इसलिये मैं ही शुद्ध बुद्ध एक स्वभावरूप परमात्मा के स्वरूप से प्राप्ति योग्य हूँ इसलिये मैं ही कर्म हूँ तथा मैं ही शुद्ध ज्ञान-दर्शन-स्वभावरूप परमात्मा से साधने योग्य अपने ही शुद्धात्मा की रुचि, व उसी का ज्ञान व उसी में निश्चल अनुभूति रूप अभेद रत्नत्रयमयी परमसमाधि से पंदा होने वाले सुखामृत रस के आस्वाद में परिणमन रूप हूँ, इससे मैं ही फलरूप हूं। इस तरह निश्चयनय से बुद्धि को रखने वाला परम मुनि जो सुख-दुःख, जन्म-मरण, शत्रु-मित्र आदि में समता की भावना से परिणमन कर
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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