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________________ पवयणसारो ] [ ३१५ परिणमित होने के स्वभाव के कारण आत्मा से प्राध्य हैं और मैं अकेला ही विशद्ध चैतन्य परिणामरूप स्वभाव से निष्पन्न तथा अनाकुलता लक्षण वाला, 'सुख' नामक कर्मफल हूँ। इस प्रकार वंधमार्ग में तथा मोक्षमार्ग में आत्मा अकेला ही है, इस प्रकार चिन्तन करने वाले तथा परमाणु की भांति एकत्व की भावना के उन्मुख पुरुष के परद्रव्य रूप परिणतिकिंचित् भी नहीं होती। परमाणु की भांति एकत्व को समझने वाला पुरुष परके साथ संबद्ध नहीं होता। इसलिये परद्रव्य के साथ असंबद्धता के कारण बह सुविशुद्ध होता है । कर्ता, करण, कर्म तथा कर्मफल को आत्मारूप से (अभेदृष्टि से) जानता हुआ, वह पुरुष पर्यायों से संकीर्ण (खंडित) नहीं होता इसलिये-पर्यायों के द्वारा संकीर्ण न होने से यह सुविशुद्ध होता है ॥१२६॥ उक्त आशय को प्रगट करने हेतु काव्य लिखते हैंद्रव्यान्तरव्यतिकरावपसारितात्मा, सामान्यमज्जितसमस्तविशेषजातः । इत्येष शुद्धनय उद्धतमोहलक्ष्मी-लुण्टाकउत्कट विवेकविविक्ततत्यः ॥७॥ अर्थ-जिसने आत्मा को अन्य द्रव्य से मिन्नता के द्वारा हटा लिया है तथा जिसने समस्त विशेषों के समुदाय को सामान्य में अन्तर्भत किया है । ऐसा जो यह उद्धत मोह को लक्ष्मी को लूट लेने वाला शुद्धनय है, उसने उत्कृष्ट विवेक (प्रशस्तज्ञान) के द्वारा आत्मस्वरूप को प्राप्त किया है ॥७॥ इत्युच्छेदात्परपरिणतेः कर्तृकर्मादिभेद-भ्रान्तिध्वंसादपि च सुचिराल्लब्धशुद्धात्मतत्त्वः । सञ्चिन्मात्रे महसि विशदे मच्छितश्चेतनोऽयं, स्थास्यत्युद्यत्सहजमहिमा सर्वदा मुक्त एव ॥८॥ अर्थ-इस प्रकार पर परिणति के उच्छेन से और कर्ता कर्म आदि भेदों की भ्रान्ति के ध्वंस से भी जिसने बहुत लम्बे समय से शुद्धात्मतत्त्व को प्राप्त किया है ऐसा यह आत्मा चैतन्य मात्र स्वरूप निर्मल (पूर्ण विशुद्ध) तेज में लीन होता हुआ अपनी सहज महिमा के प्रकाश से प्रकाशित हमेशा मुक्त ही रहेगी ॥८॥ अब द्रव्य विशेष के वर्णन की सूचनार्थ काव्य लिखते हैं द्रष्यसामान्यविज्ञाननिम्नं कृत्वेति मानसम् । तद्विशेषपरिज्ञानप्राग्भारः क्रियतेऽधुना ॥६॥ इस प्रकार द्रव्यसामान्य का विशेषज्ञान मानस में उतारकर, अब द्रव्य विशेष के परिज्ञान (विस्तृत ज्ञान) का प्रारम्भ किया जाता है। इति प्रवचनसारवृत्तौ तत्त्वदीपिकायां श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरि विरचित्तायां ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापने द्रव्यसामान्यप्रज्ञापनम् समाप्तम् ।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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