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________________ ३१४ ] [ पक्ष्यणसारो अन्वयार्थ-[कर्ता करणं कर्म कर्मफलं च आत्मा] 'कर्ता-करण-कर्म-कर्मफल आत्मा है' [इति निश्चितः] ऐसा निश्चय करता हुआ [श्रमणः] मुनि [यदि] यदि [अन्यत् ] अन्यरूप [न एव परिणमति ] नही हो तो वह [शुद्ध आत्मानं] शुद्ध आत्मा को [लभते] प्राप्त करता है। टीका—जो पुरुष इस प्रकार 'कर्ता-करण-कर्म-कर्मफल आत्मा ही है। यह निश्चय करके वास्तव में परद्रव्य रूप परिणमित नहीं होता, जिसका परब्रव्य के साथ संपर्फ रुक गया है, और जिसकी पर्याय द्रव्य के भीतर प्रलीन हो गई है ऐसा वही पुरुष शुद्धारमा को प्राप्त करता है, अन्य कोई नहीं । ___ इसी को स्पष्टतया समझाते हैं.--"जब अनादिसिद्ध पौद्गलिफर्म को बंधनरूप उपाधि को निकटता से उत्पन्न हुये उपराग (उपाधि के अनुरूप विकारी भाव) के द्वारा जिसकी स्वपरिणति रंजित (विकृत) थी, ऐसा मैं-जपाकुसुम की निकटता से उत्पन्न हुये उपराग (लालिमा) से जिसकी स्वपरिणति रंजित (रंगी हुई) हो ऐसे स्फटिक मणिकी भांति-परके द्वारा आरोपित विकार-वाला होने से संसारी (अज्ञानी) था, तब भी (अज्ञान दशा में भी) वास्तव में मेरा कोई भी (संबंधी) नहीं था। तब भी मैं अकेला ही कर्ता था, क्योंकि में अकेला ही उपरक्त (विकृत) चैतन्यरूप स्वभाव से स्वतन्त्र था (अर्थात् स्वाधीनतया कर्ता था), मैं अकेला ही करण था, क्योंकि मैं अकेला ही उपरक्त चैतन्यरूप स्वभाव के द्वारा साधकतम (उस्कृष्टसाधन) था, मैं अकेला ही उपरक्त चैतन्य रूप परिणमित होने के स्वभाव के कारण, आत्मा से प्राध्य था और मैं अकेला ही उपरक्त चैतन्य परिणामरूप स्वभाव से निष्पन्न तथा सुख से विपरीत लक्षण वाला 'दुःख' नामक कर्मफल रूप था। अब, जपाकुसुम को निकटता के नाश से जिसकी सुविशुद्ध सहज स्वपरिणति प्रगट हुई हो, ऐसी स्फटिकमणिको भांति-अनादिसिद्ध पौद्गलिक फर्म की बन्धनरूप उपाधि को निकटता के नाश से जिसको सुविशुद्ध साहजिक (स्वाभाविक) स्वपरिणति प्रगट हई है तथा जिसका पर के द्वारा आरोपित विकार रुक गया है, ऐसा मैं एकान्ततः मुमुक्षु (केवल मोक्षार्थी) हूँ, अब भी (मुमुक्षु दशा में ज्ञान दशा में भी) वास्तव में मेरा कोई भी नहीं है। अब भी मैं अकेला ही कर्ता हूँ, क्योंकि मैं अकेला ही सुविशुद्ध चैतन्य रूप स्वभाव से स्वतन्त्र हूँ, अर्थात् स्वाधीनतया कर्ता हूँ), मैं अकेला हो करण हूँ, क्योंकि मैं अकेला ही सुविशुद्धचैतन्य रूप स्वभाव से साधकतम हूँ, में अकेला ही कर्म हूँ, क्योंकि मैं अकेला हो सुविशुद्ध चैतन्य
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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