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________________ ८६ ] [ पवयणसारो अन्वय सहित विशेषार्थ - क्योंकि आत्मा ही अपने उपादान रूप से ज्ञानरूप परिणमन करता है तैसे ही पदार्थों को जानता है ऐसा पूर्व सूत्र में कहा गया है ( तम्हा) इसलिये (जीव ) आत्मा हो ( णाणं) ज्ञान है। (णेयं दध्यं) उस ज्ञानस्वरूप अत्मा का ज्ञेय द्रव्य ( तिहा) तीन प्रकार अर्थात् भूत, भविष्य, वर्तमान पर्याय में परिणमन रूप से या द्रव्य गुण पर्याय रूप से या उत्पादव्यय- ध्रौध्य रूप से ऐसे तीन प्रकार ( समक्खाद ) कहा गया है । ( पुणे ) तथा ( परिणामसंबद्धः ) किसी अपेक्षा परिणमनशील (अवा च परं ) आत्मा और पर द्रव्य ( दव्वं ति ) द्रव्य हैं तथा क्योंकि ज्ञान दीपक के समान अपने को भी जानता है और पर को भी जानता है इसलिये आत्मा भी ज्ञेय है । चलने वाला कोई जैसे घट आवि । यहां पर नयायिक मत के अनुसार कहता है कि ज्ञान दूसरे ज्ञान से जाना जाता है क्योंकि वह प्रमेय है अर्थात् ज्ञान स्वयं आपको नहीं जानता है। इसका समाधान करते हैं कि ऐसा कहना दीपक के साथ व्यभिचार रूप है। क्योंकि प्रदीप अपने आप प्रमेय या जानने योग्य ज्ञेय है उसके प्रकाश के लिये अन्य की आवश्यकता नहीं है। जैसे ही ज्ञान भी अपने आप हो अपने आत्मा को प्रकाश करता है उसके लिये अन्य ज्ञान के होने की जरूरत नही है। ज्ञान स्वयं स्व-पर- प्रकाशक है । यदि ज्ञान दूसरे ज्ञान से प्रकाशता है तब वह ज्ञान फिर दूसरे ज्ञान से प्रकाशता है ऐसा माना जायगा तो अनंत आकाश में फैलने वाली व जिसका दूर करना अति कठिन है, ऐसी अनवस्था प्राप्त हो जायगी सो होता सम्मत नहीं है । इसलिये ज्ञान स्व पर प्रकाशक है, ऐसा सूत्र का अर्थ है । इस तरह निश्चय श्रुतकेवली, व्यवहार- श्रुतकेवली के कथन की मुख्यता से आत्मा के ज्ञान स्वभाव के सिवाय भिन्न ज्ञान को निराकरण करते हुए तथा ज्ञान और ज्ञेय का स्वरूप कथन करते हुए चौथे स्थल में चार गाथाएं पूर्ण हुई || ३६ | अथातिवाहितानागतानामपि ब्रध्यपर्यायानां तादात्विकवत् पृथक्त्वेन ज्ञाने वृत्तिमु द्योतयति तक्कालिगेव सच्चे सदसन्भूदा हि पज्जया तासि । वर्द्धते ते णाणे विसेसवो दव्वजादोणं ॥ ३७॥ तात्कालिका इव सर्वे सदसद्भूताः हि पर्यायतासाम् । वर्तन्ते ते ज्ञाने विशेषतो द्रव्यजातीनाम् ॥३७॥ सर्वासामेव हि द्रव्यजातीनां त्रिसमयावच्छिन्नात्मलाभ भूमिकत्वेन क्रम प्रतपत्स्वरूपसंपदः सद्भूतासभूततामायान्तो ये यादन्तः पर्यायास्ते तावन्तस्तात्कालिका इवात्यन्तसंकरे
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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